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[ २४० 1 जो पहले गुणठणे असुध करणी हुवें रे, तो देश आराधक कहिता नाहि रे। ते विस्तार भगोती सतकज आठमे रे, ए चौभंगी दसमा उद्देसा मांहि रे ॥२६॥ देश आराधक करणी जिण कही रे, ते करणी छे जिण आग्या माय रे, कर्म कटे छे तिण करणी थकी रे, तिण ने असुध हे ने बूडो काय रे ॥२७॥
-भिक्षु ग्रन्थ रत्नाकर खण्ड ११ पृ० २६१ अर्थात् मिथ्यात्वो की निरवद्य क्रिया आशा बाहर होती तो देशाराधक मिथ्यात्वी को नहीं कहते । वह निरवद्य क्रिया कि अपेक्षा देशाराधक है उस क्रिया से कर्म का क्षय होता है। मिथ्यावी जागरुक रहे, अनित्य भावना आदि पर विचार करे। गीता में कहा हैविनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ।।
-गीता २०१७ . अर्थात् अव्यय बात्मा का कोई विनाश नहीं कर सकता। जिस प्रकार इस देह में कौमार्य के बाद यौवन और यौवन के बाद बुढ़ापा आता है, उसी प्रकार इस देह में रहने वाले देही को देहान्त प्राप्त होती है।' निर्जरा जीव का भाव है अतः जीव है ।२ अनित्य भावना आदि से मिथ्यात्वी के विशेष रूप से निर्जरा हो सकती है । आत्मा जानती है, देखती है। मिथ्यात्वी में भी जानने, देखने की शक्ति समान नहीं होती है। छः द्रव्यों में आत्मा एक द्रव्य है।४
१-देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कोमारं योवनं जरा। तथा देहान्तरप्राप्तिर्षीरस्तत्र न मुह्यति ॥
-गीता २,१३ २-पानाकी चर्चाः लसी र ३-पंचास्तिकाम २।१२२ ४-द्रव्यसंग्रह २१, प्रवचनसार २,३५
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