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[ २३६ ] मन ब्रह्मचर्य पाले ते निर्जरा रा परिणाम बिना तपसादि करे ते पिण अकाम बाशा मांही छै ।"
"पूजा श्लाघा रे अर्थ तपसादिक करे ते पिण अकाम निर्जरा छै। ए पूजा श्लाघानी वांछा आज्ञा मांही न थी ते थी निर्जरा पिण नहीं हुवे । ते वांछा थी पुन्य पिण नहीं बंधे। अने जे तपसा करे भूख तृषा खमै तिण में जीव री घात न थी ते माटै ए तपस्या आज्ञा माहि छै। निर्जरा नो अर्थी थको न करै तिण सूअकाम निर्जरा छै। एह थकी पिण पुन्य बंधे छै पिण आज्ञा बारला कार्य थी पुन्य बंधै न थी।"२
मुनिश्री नथमलजी ने कहा है-"मिथ्यात्व दशा में तप तपने वालों को परलोक का अनाराधक कहा जाता है। वह पूर्ण आराधना की दृष्टि से कहा जाता है। वे अंशतः परलोक के आराधक होते हैं।"
पर्मन विद्वान डा० याकोबी ने की यह मान्यता रही है कि तप स्वर्ग, तेजोलेश्यादि मनोवांछित अर्थ के लिए भी किया जाता है।
अनुप्रेक्षाओं से मिथ्यात्वी बायु छोड़ सात कर्म प्रकृतियों को, गाढे-बंधन से बंधी हुइ होती है, शिथिल बंधन से बंधी करता है, दीर्घकाल स्थिति वाली से ह्रस्वकाल स्थिति वाली करता है । बहुप्रदेशवाली को अल्पप्रदेश वाली करता है । कतिपय मिथ्यात्वी परभव का आयुष्य भी नहीं बाँधते हैं। उसो भव में विशुद्ध लेश्यादि से सम्यक्त्व को प्राप्त कर, चारित्र ग्रहण कर अनादि अनंत, दीर्घ चार गति रूप संसार-फतार को शीघ्र ही व्यतिक्रम कर जाता है।
अस्तु मिथ्यात्वी भी यदि शील संपन्न होता है तो उसके निर्जरा धर्म होता है। इस अपेक्षा उसे देशाराधक कहा है-आचार्य भिक्षु ने मिथ्याती री करणी री चौपई ढाल २ में कहा है
(१) भगवती नीजोड़: खंधक अधिकार ५ (२) , (३) देखो सी० वी० ई• वो० ४० पृष्ठ १७५
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