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________________ [ २३५ ] ऊपर की ओर दृष्टिपात कर गम्भीरता से सोचिये कि बालतप भी देवगति के बंधन का कारण कहा गया है । मिध्यात्वी के तप को बालतप के नाम से भिहित किया गया है। जो मिथ्यारवी सक्रिया के करने में तल्लीन रहता है, उसे बाल तपस्वी के नाम से सम्बोधित किया जाता है । देवगति के बंधनों के कारणों में बालतप तथा अकाम निर्जरा दोनों सम्मिलित के द्वारा भी मिध्यात्वी देवों में भी उत्पन्न हो सकता है । निर्जरा तथा सकाम दोनों प्रकार की निर्जरा होती है । है । अकाम निर्जरा मिथ्यात्व के अकाम मोक्ष मार्ग का देशाधक मिथ्यात्वों सद्-अनुष्ठान में कुछ अंश में आत्मदर्शन को प्राप्त कर सकता है । आत्म दर्शन पाया हुआ महापुरुष सर्वत्र वलाघनीय होता है और आत्मसिद्धि को प्राप्त कर लेता है । अतः सद् अनुष्ठानिक क्रियाओं में अनुरंजित मिथ्यात्व को मन पर पूर्ण विजय प्राप्त करने की भावना रखनी चाहिए संसार सागर डूबते हुए व्यक्ति के लिए तीर्थंकर की आज्ञा ही अवलम्बन है । इसके सहारे प्राणी भव सागर से पार हो सकते हैं । भव सागर से पार हो जाना है । आचारांग में कहा है । आशाराधना का फल " अणाणाए एगे सोवट्ठाणा आणाए एगे निरुवद्वाणा, एयं ते मा होउ ।" - आचारांग श्रु ११ अ ५। उ ६ सू १ अर्थात् कितने व्यक्ति आज्ञा के विपरीत उद्यम (सावधानुष्ठान ) करने वाले होते हैं तथा कितनेक व्यक्ति आशा में निरुद्यमी होते हैं ये दोनों बातें नहीं होनी चाहिए | मिथ्यावरी करणी की चौपई ढाल २ में आचार्य भिक्षु ने कहा है - जो निरवद करणी मिथ्याती करें रे, ते पिण कर्म करें चकचूर रे 1 तिण निरवद करणी ने कहें असुध छे रे, तिरी सरधा में कूड कूड में कूड रे ॥ ३६ ॥ - भिक्षु ग्रंथ रत्नाकर पृ० २६१ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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