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[ २३४ ] सावद्य छै तो तेहमैं, धर्मपुन्य किम थाय ॥२२॥ जो आज्ञा बारै कहो, तो धर्म पुन्य मत धार ॥२५॥ जिन आज्ञा बाहर धर्म कहीं, ण करणी यह अनीत ॥२६॥
-प्रश्नोत्तर तत्व बोक जो मिथ्यात्वी शुद्ध क्रिया करने में सत्पर रहता है, वह मिथ्यात्वी मरण प्राप्त कर मनुष्य गति अथवा देवगति में उत्पन्न होता है ।' जो मिथ्यात्वो देवगति तथा मनुष्य गति को प्राप्त करता है, वह शुद्ध क्रिया से ही प्राप्त करता है। देवगति तथा मनुष्य गति के आयुष्य का बंध सक्रिया-पुण्य को करणी के बिना नहीं होता है। जैसा कि भगवती सूत्र के आठवें शतक के नवे उद्देशक मैं कहा है
.१-नेरइयाउयकम्मासरीर-पुच्छा। गोयमा ! महारंभयाए, महापरिग्गहयाए, कुणिमाहारेणं, पंचेदियवहेणं,। २-तिरिक्ख०गोयमा! माइल्लयाए, नियडिल्लयाए, अलियवणेणं, कूडतुल-कूडमाणेणं । ३-मणुस्साउयकम्मा सरीर-पुच्छा-गोयमा! पगइभद्दयाए, पगइविणीय. याए, साणुक्कोसयाए, अमच्छरियाए । ४–देवाउय० सराग संजमेणं, संजमासंजमेणं, बालतवोकम्मेणं, अकामनिज्जराए।
-भग० ८। उ । सू ४२५ से ४२६ अर्थात् नरकायुष्य कार्मण शरीर प्रयोग के बंधन के चार कारण है। यथा, महारंभ करने से, परिग्रह के संचय से, पंचेन्द्रिय जीविका वध करने से तथा मांस का आहार करने से ।
माया करने से, गूढ माया करने से, झूठ बोलने से, कूटतोल-कूटमाप करने से जीव तिर्यञ्च का आयुष्य बांधता है। प्रकृति की भद्रता से, प्रकृति की विनीतता से, दयाभाव रखने से और अमत्सर भाव से जीव मनुष्य का आयुष्य बांधता है। ,सरागसंघम, देश संयम, बालतप और अकाम निर्जरा से जीव देवायुष्य को बांधता है। १-उववाई प्रश्न, उत्तरा० अ २०, जंबुद्वीपप्राप्ति, भगवती N CIR,
स्थांनांग स्था ४ आदि ।
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