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________________ [ २११ ] सम्मुख हो सकते हैं उसके अन्य कर्मों के साथ मोहनीय कर्मका अनुभाग विशुद्धिवश द्विस्थानीय हो जाता है । उसमें भी प्रतिसमय उसमें अनंतगुणी हानि होती जाती है इसलिए उस मिध्यात्वों के हीयमान कषाय परिणाम का ही उदय रहता है । तथा उस मिध्यात्वी के शुभलेश्या होती है । यतिवृषमाचार्य ने कहा है 1 तेल- पम्म सुक्कलेरखाणं णियमा वड्डमाणलेस्खा | कषाय पाहुडं गा १४ चूर्णी, भाग १२ १० २०४ अर्थात् सम्यक्त्व के सम्मुख हुए मिथ्यात्वों के अशुभ लेश्या नहीं होती है, शुभलेश्या ही होती है । तेजो, पद्म और शुक्ललेयाओं में से नियम से कोई एक वर्धमान लेश्या मिथ्यात्वी के होती है ।' कतिपय जैन आचार्यों की परम्परागत मान्यता रही है कि सक्रियाअहिंसादि अणुव्रतों के माध्यम से मिथ्यात्वी के निम्नलिखित पाँच लब्धियाँ भी मिल सकती है जो सम्यग्दर्शन में अनन्यतम रूप से सहायक बन सकती है १. • क्षायोपशमिकलब्धि - ज्ञानावरणीयादि कर्मों के क्षयोपशम होने पर प्राप्त होती है । २. विशुद्धलब्धि - शुभ अध्यवसाय - शुभपरिणाम, विशुद्धलेश्या से आत्मा की निर्मलता । देशनालब्धि - सत्संग करने पर प्राप्त होती है । अर्थात् सज्जन व्यक्तियों के उपदेश से प्राप्त होती है । १ - ण च तिरिक्ख- मणुस्सेसु सम्मत्तं पडिवजमाणेसु सुह- तिलेस्साओ मोत्तणण लेहसाणं संभवो अस्थि । - कषायपाहुड भाग १२ । गा ९४ टीका पृ० २०५ २- खयउवस मियविसोहि देखणपाउग्गकरणलद्वीय | चत्तारि विलामण्णां करणं पुण होदि सम्मत्ते ॥ Jain Education International 2010_03 - गोम्मटसार, जौवकाण्ड, गा ६५० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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