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1 १८७ । के बिना चारित्र गुण-संवर रूप गुण प्रगट नहीं होते। अतः सिद्ध हो जाता है कि मिथ्यात्वी के सम्यगज्ञान तथा सम्यगदर्शन नहीं है अतः उसके संवर धर्म की अपेक्षा प्रत्याख्यान-दुष्प्रत्याख्यान कहे गये हैं। निर्जरा धर्म की अपेक्षा उसके प्रत्याख्यान-शुद्ध हैं, जिनामा में हैं। श्री मज्जयाचार्य ने कहा है
"मिथ्यात्वी नो मास मास क्षमण तप सम्यग्दृष्टि ना चारित्र धर्म ने सोलमी कला न आवे एहवं कह यो छै। ते चारित्र धर्म तो संवर छै तेहनें सोलमी कलां ई न आवे कह यो। ते सोलमी कला इज नाम लेइ बतायो। पिण हजार में इ भाग न आवे । तेहने संवर धर्म इज न थी। पिण निर्जरा धर्म आश्रय कह यो न थी।xxx पिण एतो संवर चारित्र धर्म आश्रय कह यो छै। ते चारित्र धर्म रे कोउ में ही भाग न आवे । पिण सोलमा रो इज नाम लेइ बतायो।"
-~~-भ्रमविध्वंसनम् अधि १६। पृ० १६
अर्थात् मिथ्यात्वी के संवर धर्म नहीं होता है परन्तु निर्जरा धर्म होता है। जिस प्रकार अब्रतो सम्यग दृष्टि ज्ञान सहित होने पर भी चारित्र के अभाव में मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता है उसी प्रकार मिथ्यात्वी के सम्यग श्रद्धा न होने से मोक्ष नहीं है परन्तु मोक्ष मार्ग का निषेध नहीं है क्योंकि मोक्ष मार्ग की आराधना के वे भी अधिकारी हैं। कहा है.."पचखाण नाम संवर नो छ । मिथ्याती के संवर नहीं। ते भणी तेहना पचक्खाण दुपचखांण छै । पिण निर्जरा तो शुद्ध छ। ते निर्जरा रे लेखे निर्मल पचखाण छ। मिथ्यात्वी शीलादिक आदरे, ते पिण निर्जरा रे लेखे निर्मल पचखाण छ। तेहना शीलादिक आज्ञा माही जाणवा ।"
--भ्रमविध्वंसनम् १६ पृष्ठ १६ अर्थात् जो जीव, अजीव, त्रस, स्थावर को नहीं जानता और कहता है कि हमें सर्व जीव के हनन करने का प्रत्याख्यान हैं। जीव जाने बिना मिथ्यात्वी किसको न हने, किसके त्याग पाले। इस न्याय से मिथ्यात्वी के दुष्प्रत्याख्यान
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