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[ १८६ । अर्थात् प्रथम गुणस्थानवी जीव-जोव-अजीव नहीं जानने के कारण उसके प्रत्याख्यान-दुष्प्रत्याख्यान कहे हैं। प्रथम गुणस्थान में व्रत नहीं उत्पन्न होने के कारण उसके प्रत्याख्यान-दुष्प्रत्याख्यान कहें हैं। परन्तु निर्जरा धर्म की अपेक्षा उसके प्रत्याख्यान निर्मल हैं, उत्तम करणो है। शुद्ध करणी करने से मिथ्यात्वा के निर्जरा धर्म होता है। वह जैसे-जैसे निर्वद्य पराक्रम अधिक करता है बसेवैसे उसके निर्जरा अधिक होती है। मिथ्यात्वी दान, दया से संसार अपरोत्त से संसारपरोत्त होकर मनुष्य किंवा देवायुष्य का बंधन किया है। संबर रहित निर्जरा धर्म नहीं है, इसमें कोई भी तथ्य नहीं है। ज्ञान रहित होने के कारण मिथ्यात्वो के संवर व्रत भले ही न हो परन्तु उसका शुद्धपराक्रम-निर्जरा का हेतु अवश्य बनता है क्योंकि तप को मोक्ष का मार्ग और धर्म का विशेषण बतलाया गया है। उसके व्रत-संवर नहीं होता । आचार्य भिक्षु ने कहा है--
देश थकी तो आराधक कह्यो रे, पेंहले गुणठाणे ते किण न्याय रे । विरत नहीं छ तिणरें सर्वथा रे, निर्जरा लेखे कह यो जिणराय ॥२५॥
-भिक्षु ग्रन्थ रलाकर खण्ड १, मिथ्याती री करणो रो चौपई, ढाल १ अर्थात् मिथ्यात्वी के सब था प्रकार व्रत रूप संवर नहीं होता है परन्तु निर्जरा की अपेक्षा से देशाराधक कहा है। मिथ्यात्वो निरवद्य क्रिया के द्वारा सम्यक्त्व को प्राप्त किया है। सम्यक्त्व के प्राप्त होने से यदि कोई प्रत्याख्यान करे तो उसके सुप्रत्याख्यान हैं, दुष्प्रत्याख्यान नहों। अत: मिधात्वो-मिथ्यात्व से निवृत्त होकर सम्यक्त्व प्राप्त करने का अभ्यास करे ।
मिथ्यात्वो के सम्यगजान नहीं होता है सम्यग ज्ञान को प्राप्ति होने से संघर-चारित्र गुण प्रगट हो सकता है। कहा है :
णस्थि चरित्त सम्मत्तविहूणं, दंसणे उ भइयव्वं । णादसणिस्स गाणं, णाणेण विणा ण हुंति चरणगुणा । अगुणिस्स णस्थि मोक्खो, जत्थि अमोक्खस्स णिव्वाणं ।
--उत्त• अ २८) गा २६ पूर्वार्ध,३० अर्थात् सम्यक्त्व के बिना चारित्र नहीं होता और सम्यक्त्व होने पर चारित्र को भजना है। सम्यगदर्शन रहित पुरुष के सम्यगमान नहीं होता, सम्पगलान
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