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[ १७८ ] छुटकारा पाने की प्रचेष्टा करता रहे। सक्रिया से ग्रन्थिका भेदन अवश्य होगा।
धर्म कथा से मिथ्यात्वी शुभ कर्म का बंध करता है तथा धर्मकथा से निर्जरा होने का भी उल्लेख है। आचार्य भिक्षु ने मिथ्याजी री करणी री चौपई ढाल १ तथा ढाल २ में कहा है -
निरवद करणी करे समदिष्टी, तेहीज करणी करे मिथ्याती सांय । यां दोयाँ रा फल आछा लागें, ते सूतर में जोवों ठाम ठाम ॥३६॥ पेंहले गुणठाणे करणी करें, तिणरे हुवे छे निरजरा धर्म । जो घणों घणों निरवद प्राक्रम करें, तो घणा घणा कटे छे कर्म दो०३॥
-भिक्षुग्रन्थ रत्नाकर खं० १, पृ० २५८, २५६ उपयुक्त उद्गारों से स्पष्ट है कि आचार्य भिक्षु ने मिथ्यात्वी के लिए भी निरवद्य करनी का फल अच्छा बतलाया है और सम्यक्त्वी के लिये भी। मिथ्यात्वी गुणस्थान में स्थित व्यक्ति के भी निरवद्य करणी से निर्जरा धर्म होता है। यह निर्जरा धर्म-मिथ्यात्वो के मोहनीय कर्म के क्षयोपशम तथा वीर्यान्सराय कर्म के क्षयोपशम से होता है। स्वामी कार्तिकेय ने कहा है
वारसविहेण तवसा, णियाण रहियस्स णिज्जराहोदि । वेरगमावणादो जिरहंकारस्स णाणिस्स ॥
द्वादशानुप्रेक्षा, निर्जरा अनुप्रेक्षा गा १०२ अर्थात् निदान रहित, अहंकाय शुन्य ज्ञानी के बारह प्रकार के तप से तथा वैराग्य भावना से निर्जरा होती है यत्किचित् बारह प्रकार का तप तथा वैराग्य भावना मिथ्यात्विषों में देखी जाती है। मिथ्यात्वीका निरवद्य पराक्रम जैसे-जैसे बढ़ता है वैसे-वैसे उसे अधिक निर्जरा होती है। मिमात्वी के शुभयोग होता है वह भी निरषद्य करनी से कर्मों को चकचूर करता है ।' आचार्य भिक्षु ने मियादी री करणी री चौपई में कहा है
१-मिथ्याती रे पिण सुभ जोग जाण हो।
ते पिण कर्म करें चकच र रे
-आचार्य भिक्ष
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