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[ १७४ ] अर्थात् देवों के द्वारा निदान सम्बन्धी वचनों को सुनकर बालतपस्वी तामली तापस मौन रहा। उसने सोचा कि निदान करना मुझे उचित नहीं है। करणी निष्फल नहीं जा सकती। निदान से तपको खोकर नरक गति में जाता हैं, चारों गतियों में दुःख को प्राप्त होता है। अतः बालतपस्वी तामलों तापस ने निदान नहीं किया। कोटि भवों के संचित कर्म निदान रहित तप द्वारा जीण होकर झड़ जाते हैं।' आचार्य भिक्षु ने मिथ्याती री करणी री चौपई में ढाल २ में कहा है
तामली तापस तप कीधों घणों रे, साठ सहंस वरसां लग जांण रे। बेले बेले निरंतर पारणों रे, वैराग मावे सुमता आण रे ॥२८॥ तिण संथारों कीयों भला परिणाम सू रे, जब देव देवी आया तिण पास रे ॥३०॥ पूर्वार्ध म्हे चमरचचा राजध्यानी तणां रे, देवदेवी हूआं म्हे सर्व अनाथ रे । इन्द्र हूं तों ते म्हारो चव गायो रे, थे नीहाणों कर हुवों म्हारा नाथ रे ॥३१॥ इम कहे ने देवदेवी चलता रह्या रे, पिण तामली न कीयो नीहाणों ताय रे । तिण कर्म निरजरिया मिथ्याती थकां रे, ते इसांण इन्द्र हुवों छे जाय रे ॥३२॥ ते देव चवी ने होसी मानवी रे, महाविदेह खेतर मझार रे । ते साध थइ ने सिवपुर जावसो रे संसारनी आवागमन निवार रे ॥३३॥ इणकरणी कीधी छे मिथ्याती थकें रे,
तिणकरणी सू घटीयो छे संसार रे। --भवकोडीसंचियं कम्म तवसा निज्जरिजन। --उत्त० ३०१६
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