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________________ [ १६३] तए णं तस्स तेयलिपुत्तस्स अणगारस्स सुभेणं परिणामेणं पसत्येणं अज्मवसाणेणं लेस्साहिं विसुज्झमाणीहिं तयावरणिज्जाणं कम्माणं खसोवसमेणं कम्मरयविकरणकर अपुवकरणं पविट्ठस्स केवलवरणाणदसणे समुप्पण्णे। -ज्ञाता० अ १४। सू८३ अर्थात् तेतलिपुत्र को गृहस्थावस्था में शुभ परिणाम से जातिस्मरणशान उत्पन्न हुआ। इसके बाद उन्होंने संयम ग्रहण किया, गृहस्थ से अणगार बने विचित्र प्रकार की तपस्या की। स्वयं ही दीक्षित हुए तथा स्वयं ही चतुर्दश पूर्वो की विद्या प्राप्त की। तेतलिपुर नगर के प्रमदवन उद्यान में तेतलिपुत्र अणगार को शुभ परिणाम, प्रशस्त अध्यवसाय, लेख्याकी विशुद्धि से, तदावरणीय कर्म के क्षयोपशम होने से कर्म रूपो रज को नष्टकर अपूर्वकरण में प्रविष्ट हुए तथा केवलज्ञान-केवल. दर्शन उत्पन्न हुआ। १६ - संज्ञो तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय को शुभ परिणाम आदि से जातिस्मरणज्ञान उत्पन्न होता है-उववाई सूत्र में कहा है - सेन्जे इमे सपिग-पंचिंदिय-तिरिक्खजोणिया पज्जत्तया भवंति, तंजहा-जलयरा, थलयरा, खहयरा । तेसिणं अत्थेगइयाणं सुभेणं परिणामेणं पसत्थेहिं अमवसाणेहिं लेस्साहिं विसुज्झमाणोहिं तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहापूह मग्गण-गवेसणं करेमाणाणं सण्णीपुवजाह-सरणे समुप्पज्जई । -ओव० सू १५६ अर्थात् कतिपय संज्ञो तिर्यंच पंचेन्द्रियको शुभ परिणाम, प्रशस्त अध्यवसाय और विशुद्ध लेश्या से, सदावरणीय कर्मो के क्षयोपशम होने से, ईहा-अपोह-मार्गणागवेषणा करते हुए पूर्व भवों की स्मृति रूप जातिस्मरण रूप ज्ञान उत्पन्न होता है । आगमों में कहा-उस जाति स्मरण ज्ञान के पैदा होनेपर वे तियंच पंचेन्द्रिय (जलचर-स्थलचर-नशचर ) स्वयं ही पाँच अणुव्रतों को स्वीकार करते हैं। बहुत से शोलवत, गुणव्रत विरमण, प्रत्याख्यान और पोषधोपवास से आत्मा को Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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