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________________ - [ १६२ ] गवेषणा करते हुए, सदावरणीय कर्म के क्षयोपशम होने से, प्रशस्त, अध्यवसाय, विशुद्धमान लेश्या, शुभरिणाम से उस मेढ़क को जातिस्मरण शान उत्पन्न हुआ जिससे उसने अपने द्वारा कृत पूर्व भव -नंदमणियार के भव को देखा। १४-अंबड़ परिव्राजक वीर्यलब्धि ( विशेष शक्ति की प्राप्ति ) व क्रियलब्धि ( अनेक रूप बनाने की शक्ति ) और अवधिज्ञानलब्धि (रूपी पदार्थों से आत्मा से जानने की शक्ति ) के प्राप्त होनेपर मनुष्यों को विस्मित करने के लिए: कंपिल्लपुर नगर में सौ घरों में बाहार करता था, सो घरों में निवास करता था । ये लब्धियां अंबड़परिव्राजक को स्वाभाविक भद्रता यावत् विनीतता से युक्त निरंतर बेले-बेले की तपस्या करते हुए भुजाएँ ऊंची रखकर और मुख सूर्य की ओर आतापना भूमि में आतापना लेने वाले शुभ परिणामादि से प्राप्त हुई। कहा है___ अम्मडस्स गं परिवायगस्स पगइभहयाए जाव विणीययाए छ8 छठेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड्ढे बाहाओ पगिजिमय पगिन्मिय सूराभिमुहस्स आयावणम्मीए आयावेमाणस्स, सुभेणं परिणामेणं पसत्थेहिं अमवसाणेहिं लेस्साहिं विसुज्ममाणीहि, अण्णया कयाई तदावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहापूहमग्गणगवेसणं करेमाणस्स वीरियलद्धीए वेउब्वियलद्धीए ओहिणाणलद्धी समुप्पण्णा। __-ओव० सू ११६ अंबर परिव्राजक को शुभ परिणाम, प्रशस्त अध्यवसाय और विशुद्धमान लेक्ष्या के द्वारा किसी समय सदावरणीय कर्मों के क्षयोपशम होने पर ईहा, अपोह, मार्गणा तथा गवेषणा करते हुए वीरयलब्धि, वैक्रियाधि के साप अवषिशान लब्धि प्राप्त हुई। १५-तेतलिपुत्र को शुभ परिणाम अादि से जातिस्मरणशान उत्पन्न हुषा. तए णं तस्स तेयलिपुत्तस्स अणगारस्व सुभेणं परिणामेणं जाईसरणे समुप्पन्ने। -ज्ञाता० ॥ १४॥ सू८१ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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