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[ १५७ ] के क्षयोपशम से ईहा, उपोह, मार्गणा, गवेषणा करते हुए अवविज्ञान उत्पन्न हुआ।
५–साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविकादि से केवलोप्ररूपित धर्म को बिना सुनकर ही ( अश्रुत्वा ) कतिपय जीवों को ज्ञानावरणीयादि फर्मों के क्षयोपशम से विभंग अज्ञान उत्पन्न होता है । उस मिथ्यात्व अवस्था में उनके विशुद्ध लेश्या, शुभ अध्यवसाय, शुभपरिणाम आदि होते हैं।
तस्स णं (असोच्चा केवलिस्सणं) भंते। छठं छठेणंxxx अन्नया कयाइ सुभेणं अमवसाणेणं, सुभेणं परिणामेणं, लेस्साहिं विसुउममाणीहिं-विसुज्झामाणीहिं तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहा-पोह-मग्गणगवेसणं करेमाणस्स विब्भंगे नामं अन्नाणे समुप्पज्जा ।
-भग ० श०६ उ० ३१॥ प्र ३३
अर्थात् किसी के पास से भी धर्म को न सुनकर अश्रुत्वा को निरंतर-छट्ठ-छट्ठ का तप करते हुए xxx किसी दिन शुभ अध्यवसाय, शुभ परिणाम, विशुद्ध लेश्या एवं सदावरणीय (विभंग ज्ञानावरणीय कर्म ) कर्मो के क्षयोपशम से ईहा-ऊपोहमार्गणा और गवेषणा करते हुए विभंग अज्ञान उत्पन्न होता है ।
६.-इस अवसप्पिणी काल के उन्नीसवें तीर्थकर श्री मल्लीनाथ भगवान जिस दिन दीक्षित हुए, उसी दिन उन्हें शुभलेश्या, शुभपरिणाम तथा शुभ अध्यवसाय को अवस्था में केवलज्ञान, केवलदर्शन उत्पन्न हुआ।
तए णं मल्ली अरहा जं चेव दिवस पव्वइए तस्सेव दिवसस्स पच्चवरोहकालसमयंसि असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलापट्टयंसि सुहासणवरगयस्स सुहेणं परिणामेणं ( पसत्थेहिं अमवसाणेहिं) पसत्थाहिं लेसाहिं (विसुज्झमाणीहिं) तयावरणकम्मरयविकरणकर अपुवकरणं अणुपविठ्ठस्स अणते जाव केवलवरनाणदंसणे समुप्पन्ने।
-ज्ञातासूत्र अ०८ सू २२५
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