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[ १३३ ] __ आगम ग्रंथों के अध्ययन करने से ऐसा मालूम होता है कि सम्यक्त्व को किसी मिथ्यात्वी ने अभी स्पर्श नहीं किया है फिर भी वह सद् अनुष्ठानिक क्रियाओं के द्वारा कृष्णपाक्षिक से शुक्लपाक्षिक हो सकता है। अभवसिद्धिक मिथ्यात्वी-कृष्णपाक्षिक ही होते हैं तथा भवसिद्धिक मिथ्यात्वी-कृष्णपाक्षिक-शुक्लपाक्षिक दोनों प्रकार के होते हैं ।
कृष्णपाक्षिक मिथ्यात्वी अभवसिद्धिक भी होते हैं, भासिद्धिक भी। वे नैरयिकों में-दक्षिणगानी नैरयिकों में अधिकतर उत्पन्न होते हैं। कहा हैxxx कृष्णपाक्षिकाणां तस्यां दिशि प्राचुर्येणोलादाच्च ।
-पण्ण० पद ३। सू २१३ टीका अर्थात् कृष्णपाक्षिक मिथ्यात्वो-दक्षिणगामी नरयिकों में प्रचुरता से होते हैं । जब कृष्णपाक्षिक मिथ्यात्वी शुक्लपाक्षिक हो जाते हैं वे नियमतः हो मोक्ष जायेंगे । कहा है -
तेषां लक्षणमिदं-येषां किञ्चिदूनपुदगलपरावर्धिमात्रसंसारस्ते शुक्लपाक्षिकाः, अधिकतरसंसारभाजिनस्तु कृष्णपाक्षिकाः, उक्त च
जेसिमवड्ढो पुग्गलपरियट्टो सेसओ य संसारो।
ते सुक्कपक्खिया खलु अहिए पुणकण्हपावी उ ॥ अतएव -च स्तोकाः शुक्लपाक्षिकाः अल्पसंसारिणां स्तोकत्वात बहवः कृष्णपाश्रिकाः, प्रभूतसंसारिणामतिप्रचुरत्वात्, कृष्णापाक्षिकाश्च प्राचुर्येण दक्षिणस्यां दिशि समुत्पद्यन्ते, न शेषासु दिक्षु, तस्यास्वाभाव्यात, तच्च तथास्वाभाव्यं पूर्वाचाय रेवं युक्तिभिरुपबृह्यते, तद्यथाकृष्णपाक्षिका दीर्घतरसंसारभाजिन उच्यन्ते, दीर्घतरसंसारभाजिनस्य बहुपापोदयाद भवंति, बहुपापोदयाश्च क्र रकर्माणः, क्र रकर्माणश्च प्रायस्तथास्वाभाव्यात् सद् भवसिद्धिका अपि दक्षिणस्यां दिशि समुत्पद्यन्ते, शेषासु दिक्ष , यत उक्त
"पायमिह कूरकम्मा भवसिद्धि यावि दाहिणिल्लेसु। नेरइयतिरियमणुयासुराइठाणेसु गच्छंति ॥ १॥"
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