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________________ [ १२४ ] इन्द्रियों का उपयोग मिथ्यात्वी के भी होता है । इन्द्रियलब्धि की प्राप्तिज्ञानावरणीय, तथा दर्शनाधरणीय कर्म के क्षयोपशम से होती है। । कतिपय विभंग ज्ञानलब्धियाले मिथ्यात्वी लोकसंस्थान को देखने के अन्तमहूत बाद तत्वार्थों पर सही श्रद्धान कर सम्यक्त्वी हो जाते हैं तब उनका विभंग शान-अवधि ज्ञान रूप में परिणत हो जाता है। प्रवचनसारोद्धार में कहा है आमोसहि १ विप्पोसहि २ खेलोसहि ३ जल्लओसही ४ चेव । सवोसहि ५ संभिन्ने ६ ओही ७ रिउ ८ विउलमइलद्वी ८ ॥१२॥ चारण १० आसीविस ११ केवलिय १२ गणहारिणोय १३ पुव्वधरा१४ अरहंत १५ च कवट्टी १६ बलदेवा १७ वासुदेवा १८ य ॥१३॥ खीरमहुसप्पिासव १६ कोट्टयबुद्धी २० पयाणुसारी २१ य । सह बीयबुद्धि २२ तेयग २३ आहारग २४ सीयलेसा २५ य ॥६४॥ वेउविदेहलद्धी २६ अक्खीणमहाणसी २७ पुलाया २८ य । परिणामतववसेणं एमाई हुति लद्धीओ ॥१५॥ -प्रवचनसारोद्धार गा १४६२ से १४६६ अर्थात् निम्नलिखित अठाइस लब्धियाँ होती हैं-यथा-(आमशैषधिलब्धि, २ विडोषधिलब्धि, ३ खेलौषधिलब्धि, ४ जल्लोषधिलिब्ध, ५ सर्वोषधिलब्धि, ६ संभिन्नश्रोतोलब्धि ७ अवधिलब्धि, ८ ऋजुमतिलब्धि ६ विपुलमतिलब्धि, १० चारणलब्धि ११ आशीविषलब्धि १२ केवलिलब्धि १३ गणधरलब्धि, १४ पूर्वधरलब्धि १५ अहल्लब्धि, १६ क्रवर्तीलब्धि १७ बलदेवलब्धि १८ वासुदेवलब्धि, १६ क्षीरमधुसपिराश्रवलब्धि, २० कोष्ठकबुद्धिलब्धि, २१ पदानुसारिलब्धि २२ बीमबुद्धिलब्धि २३ तेजोलेश्यालब्धि, २४ आहारकलब्धि २५ सीसतेजोलेश्यालब्धि, २६ वैकुविकलब्धि, २७ अक्षीणमहानसीलब्धि, और २८ पुलाकलब्धि । ... औधिक भव्य सिद्धिक जीवों में उपयुक्त अठाइस ही प्रकार की लब्धि मिलती है क्योंकि इनमें सम्यक्त्वी जीवों का भी ग्रहण हो जाता है । जैसा कि कहा है Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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