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[ १२३ ] अर्थात् लब्धि दस प्रकार की कही गयी है-जान लब्धि, दर्शनलग्षि, चारित्रलब्धि, चारित्राचरित्रलब्धि, दानलब्धि, लाभलब्धि, भोगलब्धि उपभोगलब्धि, वीर्यल ब्धि और इन्द्रियलब्धि ।
मिथ्यात्वी को ज्ञानलब्धि को अज्ञानलब्धि कहते हैं। आगम में सम्पदृष्टि की लब्धि के लिए (ज्ञान के स्थान पर ) ज्ञानलब्धि का व्यवहार हुआ है तथा मियादृष्टि की लब्धि के लिए अज्ञानलब्धि का व्यवहार हुआ है।'
उपरोक्त दस लब्धियों में मिथ्यात्वी को निम्नलिखित लब्धियाँ प्राप्त होती है।
१--ज्ञानलब्धि-तीन अज्ञान लब्धि-मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान और विभंगअज्ञानलब्धि।
२-दर्शनलब्धि-एक मिथ्यादर्शनलब्धि । ३ से ६-दानलब्धि से उपभोगलब्धि । ७-वीर्यलब्धि-बालवीर्यलब्धि ।। ८ - इन्द्रियलब्धि-श्रोत्रेन्द्रिबलब्धि यावत् स्पर्शेन्द्रियलब्धि ।
अज्ञानलब्धिवाले जीव अज्ञानी ही होते हैं, ज्ञानी नहीं होते। उनमें भजना से तीन अज्ञान होते हैं अर्थात कितने ही में पहले के दो अज्ञान और कितने ही में तीन अज्ञान होते हैं । विभंगज्ञान लधि वाले जीवों में नियमा से तीन अज्ञान पाये जाते हैं । मिथ्याश्रद्धान वाले अज्ञान ही होते हैं। उनमें तीन आशन भजना से पाये जाते हैं । दनिलग्धि से रहित कोई भी जीव नहीं होता है ।
दानान्तराय कर्म के क्षय और क्षयोपशम से दानलब्धि प्रास होती है। मिथ्यात्वी के दानान्तराय कर्म का क्षयोपशम मिलता है, क्षय नहीं क्योंकि दानान्सराय कर्म का क्षय तेरहवें गुणस्थान से पूर्व के गुणस्थानों में नहीं मिलता। इसी प्रकार लाभान्तराय, भोगान्सराय, उपभोगान्तराय सपा वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम भो मिथ्यात्वी के होता है।
१-(अण्णाणलद्धी) तिविहा पन्नत्ता, तंजहा-मइअण्णाणलद्धी, सुमअण्यापलद्धी, विभंगणाणलद्धी।
-भग०८ उ २ सू १४१
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