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[ ११३ ] मिथ्यादर्शन शल्प के समान अत्यन्त दुःखदायी होता है; जिस प्रकार किसी ग में शल्य कांटा चूम जाने से धनो वेदना होती है उसी प्रकार सल्य कम मध्यादर्शन आत्मा को महान कष्ट का कारण होता है। जैसा कि कहा है
'मिच्छादसणसल्लेण' ति मिथ्यादर्शनं-मिथ्यात्वं तदेव शल्यं मिथ्यादर्शनशल्यम् ।
-पण्ण० पद २२। सू १५८०। टीका मिथ्यादर्शन-विपर्यस्ता दृष्टिः, सदेव तोमरादिशल्यमिवशल्यं दुःखहेतुवात् मिथ्यादर्शनशल्यमिति ।
ठाणस्था १। सू १०८ टीका भगवती सूत्र में कहा है
मणुस्सा तिविहा पन्नत्ता, संजहा-सम्मदिही, मिच्छदिट्ठी, अम्मामिच्छविट्ठी xxx । मिच्छादिट्ठीणं पंच किरियाओ कन्जंतिप्रारंमिया, पारिगगहिया, मायावत्तिया, अप्पच्चक्खाणकिरिया, मिच्छादसणवत्तिया । सम्मामिच्छदिठीणं पंच।
-भगवती श १। २ प्र०६७ अर्थात मनुष्य तीन प्रकार के हैं, यथा-सम्यग दृष्टि, मियादृष्टि और सम्यग मिथ्यादृष्टि । मिथ्यादृष्टि मनुष्य को पांच क्रियाएँ लगती हैं-आरम्भिकी, पारिग्रहिकी, मायाप्रत्यया, अप्रत्याख्यान प्रत्यया और मिथ्यादर्शन प्रत्यया ।।
मनुष्य की तरह सभी मिथ्याष्टियों को उपरोक्त पांचों क्रियाएँ लगती हैं। संक्षेपतः क्रिया के दो भेद हैं ---द्रव्य क्रिया और भाव क्रिया । जीव तथा अजीव की स्पन्दन रूप-गति रूप क्रिया-द्रव्य क्रिया तथा जिस क्रिया से कर्मबंध होता है वह भाव क्रिया है ।' मिथ्यात्वी के दोनों प्रकार की क्रिया होती है। मिथ्यात्व का एक भेद अक्रिया भी है । कहा है
अकिरिया तिविहा पन्नत्ता, संजहा-पओगकिरिया, समुदाणकिरिया, अन्नाणकिरिया।
-ठाण० स्था० ३१ उ ३. सू४०४
१-क्रियाकोश पृ० १७, १५
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