SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 136
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ १०६ ] प्रथम गुणस्थान में-मिथ्यात्वी ही शुभ क्रिया से मनुष्य तथा देवगति (वाणव्यंतर-भवनपति, ज्योतिषी, वैमानिक-चारों प्रकार के देवों का आयुष्य) के आयुष्य का बंधन करते है। प्रथम गुणस्थान का जीव निरवद्य अनुष्ठान से कल्पातीत वैमानिक देव में उत्पन्न हो सकता है। ---नव प्रवेयक देव में उत्पन्न हो सकता है, परन्तु अनुतरोपातिक देवों में उत्पन्न नहीं हो सकता है क्योंकि आराधक संमती ही अनुत्तरोपातिक देवों में उत्पन्न हो सकते हैं, परन्तु असंयती तथा संयतासंयती नहीं। मिथ्यात्वी भद्रादि परिणाम से मनुष्य के आयुष्य का बन्धन करते हैं। उस भद्रादि परिणाम को आचार्य भिक्ष ने निरवद्य क्रिया में सम्मिलित किया है। नवपदार्थ की चौपई में कहा है - प्रकृत रो भद्रिक नें बनीत छ रे लाल । दया ने अमच्छर भाव जाण हो॥ तिणसूबांधे आऊषो मिनख रो रे लाल । ते करणी निरवद पिछाण । -पुन्यपदार्थ की ढाल २। गा २५ जैसे बालपंडित वीयं वाला मनुष्य अर्थात् संयतासंयती-(श्रावक) देशविरति और देश प्रत्याख्यान के कारण नरकायु, तियंचायु और मनुष्यायु का बंध नहीं करता है, परन्तु देवायु का बंधन कर (वैमानिक देवायु का बन्ध) देवों में उत्पन्न होता है। वैसे ही मिथ्यात्वी जीव सद् अनुष्ठानिक क्रियाओं के द्वारा मनुष्यायु और देवायु का बन्धन करता है। जैसा कि भगवती सूत्र में कहा है बालपडिए णं भंते ! मणुस्से किंणेरइयाउयं पकरेइ ? जाव-देवाउय किच्चा देवेसु उवबज्जइ ? गोयमा ! xxx णो रइयाउयं पकरेइ, जाव-देवाउयं किच्चा देवेसु उववज्जइ ! से केण?णं, जाव-देवाउयं १-वैमानिका द्विविधाः । सौधर्मेशानसनत्कुमारमाहेन्द्रब्रह्मलान्तकशुक्रसहस्रारानत प्राणतारणाच्युतकल्पजाः 'कल्लोपन्नाः । नवग्रे वेयकपञ्चानुत्तरविमानजाश्च कल्पातोताः। --जैन सिद्धान्त दीपिका प्र३ सू १६ से २१ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy