SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 126
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ ६] निरवद करणी करें पहले गुणठाणे । तिण करणी में जांणे जाबक अशुध ।। इसडी प्ररूपणा करें अज्ञानी। तिणरी भ्रष्ट हुई , सुध नै बुध ।। २६ ।। निरवद करणी कोई करें ,मिथ्याती। तिणरै कहें गुण नीपजें नही काँइ ॥ तिणनें भगवंत पिण आगना नहीं देवें। एहवी केहें छै अज्ञानी परखदा माहीं ॥३१॥ -भिक्ष-ग्रंथ रत्नाकर भाग १, पृ० २५७ अर्थात् प्रथम गुणस्थानवी जीव-मिथ्यावी यदि निरषध करणी करता है उस निरवद्य करणी को यदि कोई अशुद्ध कहता है मानों उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है और वे परिषद में प्ररूपना करते हैं कि मिथ्यात्वी के उस निरवद्य करणी की भगवान प्राज्ञा नहीं देते-वस्तुतः वह उनका भ्रम है, वे दृष्टि से दिग्मूढ हैं, मोह से ग्रसित है। निरवद्य करणी से मिथ्यात्वी के पुण्य का बंध अवश्यमेव होगा। सूत्रकृतांग व तत्त्वार्थ सूत्र में कहा गया है कि धर्म के बिना पुण्य का बंध नहीं होता ? सिद्धांन चक्रवर्ती नेमीचंद्राचार्य ने भी द्रव्य संग्रह में कहा हैं कि शुभयोग से पुण्य का बंध निश्चय ही होता है।" सुह असुहभावजत्ता पुण्णं पावं हवंति खलु जीवा । -बृहद् द्रव्यसंग्रह गा ३८ महाभारत के अन्तिम पृष्ठों में भी कहा गया है कि धर्म से ही अर्थ और काम की प्राप्ति होती है जिन्हें जैन सिद्धांतानुसार पुण्य का फल कहा जाता है। ऊर्ध्ववाहुर्विरोम्येष, न च कश्चिच्छणोति माम् । धर्मादर्थश्च कामश्च स धर्मः किं न सेव्यते ॥ -महाभारत १ -शुभारणामानुबधात् शुभो योग: xxx तस्येवास्रवः शुभो योगः पण्यस्य। तत्त्वार्थ अ ६। सू० ३०-सिद्धसेनगणि टीका Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy