SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ ६८ ] ferreat के पुण्य का भी आस्रव होता है। क्योंकि उसके सद् अनुष्ठानिक क्रियाएं हो सकती है तथा पाप कर्म का भी आसव होता है क्योंकि उसके मिध्यात्व आदि अशुभ आस्रव द्वारों का निरोध नहीं है । अस्तु सद् अनुष्ठानिक क्रियाओं के द्वारा गाढ़ पुण्य का बंघ होने से वे मिथ्यात्वी नववे प्रवैयक (वैमानिक देवों का एक भेद) तक उत्पन्न हो सकते हैं । असंख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्य तथा तिर्यंच पंचेन्द्रिय - जिन्हें जैन दर्शन में 'युगलिये' नाम से संबोधित किया जाता है। दस प्रकार के कल्पवृक्ष जिनकी atarajar (मनोकामना पूर्ति करते हैं । उन युगलियों का आयुष्य बंधन मिथ्याष्टि मनुष्य - तिथंच पंचेन्द्रिय हो सद्अनुष्ठानिक क्रिया के द्वारा करते हैं । चूँकि सम्यग्दृष्टि मनुष्य तथा तियंच-पंचेन्द्रिय वैमानिक देव के आयुष्य का ही बंधन करते हैं, अन्य का नहीं तथा सम्यग् मिध्यादृष्टि अर्थात् तृतीय गुणस्थान वाले जीव किसी भी गति के आयुष्य का बंधन नहीं करते हैं अतः सिद्ध हो जाता है कि मिध्यात्वी के शुभ योग का आस्रव भी होता है । शुभयोग का आश्रव-जिन भगवान की आज्ञा की क्रिया निर्जरा के होने होता है । ४ : मिध्यात्वी और पुण्य साधारणत: सांसारिक जीव पुण्य के बंधन के बिना निम्नतर विकास से उच्चतर विकास को प्राप्त नहीं होता है । पुण्य का बंध निर्जरा के बिना नहीं होता है । माचार्य भिक्षु ने कहा है पुण्य नीपजे तिण करणी मझे, तिहा निरजरा निश्वे जाण । जिण करणी री छै जिन आगन्यां, तिण में शंका मत आंण ॥ - नव पदार्थ की चौपई पुण्य पदार्थ की ढाल २, दोहा २ अर्थात् जिस करनी से पुण्य का बन्ध होता है उसमें निर्जरा निश्चय रूप से होती है । निर्जरा की करनी में जिन आज्ञा है इसमें तनिक भी संदेह नहीं है । सावध करनी से पुण्य का बंध नहीं होता है । पुण्य का बंध होता है एक निरपच करनी से हीं ; चाहे मिध्यात्वो उस निरवद्य करणी को क्यों न करें । मिथ्यात्वी भी निरवद्य करनी-क्रिया करने के अधिकारी हैं । आगे आचार्य भिक्षु ने मिथ्याती री करणी की चौपई में, ढाल १ में कहा है Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy