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[ ८५ ] शान, मन:पर्यव ज्ञान, मति अज्ञान, श्रुतअज्ञान, विभंगअज्ञान, चक्षुदर्शन अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, सम्यगहष्टि, मिथ्याष्टि, सम्यग मिथ्यादृष्टि, सामायिक चारित्र, छेदोपस्थानीय चारित्र, परिहारविशुद्धि चारित्र, सूक्ष्मसंपराय चारित्र, चारित्राचारित्र (संयमासंयम ), दानल ग्धि, लाभलब्धि, भोगलब्धि, उपभोगब्धि, पोर्यलब्धि, पंडितवीर्य, बालपंडितवीयं, बाल वीर्य श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय, नवपूर्व का ज्ञान पावत् चतुर्दश पूर्व का ज्ञान ।
उपरोक्त क्षयोपशमिक भाव में से निम्नलिखित क्षायोपतमिक भाव पाये जाते है, यथा- "मतियज्ञानलब्धि, श्रुत अज्ञानलब्धि, विभंगशान लब्धि, चक्षुदर्शन लब्धि, अचक्षुदर्शनलब्धि अवधिदर्शन लब्धि, मिथ्यादृष्टि, दान आदि पाँच लब्धि, बालवीर्य लब्धि, नवपूर्व लब्धि, श्रोत्रे न्द्रिय आदि पाँच इन्द्रिय लग्धि आदि।" ___ अस्तु मिथ्यात्वी के ज्ञानावरणीय आदि चारों प्रकार के कर्मों का क्षयोपसम निष्पन्न होता है। उदय भाव के भेदों में भी मिथ्यादृष्टि' का समावेश है। जिन तत्त्व या तत्त्वांशों पर मिथ्यात्वी विपरीत श्रद्धा करता है वह उदयभाव रूप मिथ्यादृष्टि है" ( दर्शन मोहनीय कर्म का उदय है । ) क्या जिन तत्त्व या तत्त्वांशों पर मिथ्यात्वी सम्यग श्रद्धा करता है वह दर्शनमोहनीय कर्म का क्षयोपशम निष्पन्न है। जैसे पीतज्वर से युक्त जीव को मधुर रस भी अच्छा नहीं लगता वैसे ही दर्शनमोहनीय कर्म के उदय से मिथ्या प्रकृतियों का वेदन करता हुआ जीव-मिथ्यात्वी को सत्य अच्छा नहीं लगता। यह उदयभाव रूप मिध्यादृष्टि है।
१-अणुओगद्दाराई सूत्र २४६ २-तत्र मिथ्यादर्शनोदयवशीकृतो मिथ्याष्टिः ।
___-राजवार्तिक ६, १, १२ ३-तेषु मिथ्यादर्शनकर्मोदयेन वशीकृतो जीवो मिथ्यादृष्टिरित्यभिधीते । यत्कृतं तत्त्वार्थानाम् श्रद्धानम् ।
-राजवार्तिक ९, १, १२
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