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________________ विदुषी पुत्रवधू का कथानक किसी नगर में लक्ष्मीदास सेठ भली प्रकार से रहता था । वह बहुत धनसम्पत्ति के कारण अत्यन्त गर्वीला था । भोगविलासों में ही ( वह ) लगा हुआ ( था ) ( श्रौर) कभी भी धर्म नहीं करता था । उसका पुत्र भी ऐसा ही था । यौवन में पिता द्वारा धार्मिक धर्मदास को यथानाम शीलवती कन्या के साथ पुत्र का विवाह करवा दिया गया। जब वह कन्या आठ वर्ष की हुई, तब उसके द्वारा पिता की प्रेरणा से (एक) साध्वी के पास सर्वज्ञ के धर्म के श्रवण से सम्यकत्व और अणुव्रत ग्रहण किए गए । सर्वज्ञ के धर्म में वह बहुत निपुण हुई । जब वह ससुर के घर में आ गई, तब ससुर आदि को धर्म से विमुख देखकर, उसके द्वारा बहुत दुःख प्राप्त किया गया । मेरे निजव्रत का निर्वाह कैसे होगा ? अथवा देव - गुरु से विमुख ससुर आदि के लिए धर्मोपदेश कैसे सम्भव होगा ? इस प्रकार वह विचार करती है । संसार असार है, लक्ष्मी भी असार है, देह भी विनाशशील है, एक धर्म ही परलोक जानेवाले जीव के लिए आधार है, इस प्रकार एक बार उपदेश देने से निज पति सर्वज्ञ के धर्म में संस्कारित किया गया । कुछ समय पश्चात् ( वह) इस प्रकार सास को भी समझाती है । ससुर को समझाने के लिए वह समय खोजने लगी । - एक बार उसके घर में श्रमण-गुण-समूह से अलंकृत महाव्रती, ज्ञानी, यौवन में स्थित एक साधु भिक्षा के लिए आए । यौवन में ही व्रत को ग्रहण किए हुए शान्त और जितेन्द्रिय साधु को घर में आया हुआ देखकर श्राहार को प्राप्त करते हुए होने पर ही उसके द्वारा विचार किया गया - यौवन में महाव्रत अत्यन्त दुर्लभ ( है ) । इनके द्वारा इस यौवन अवस्था में ( महाव्रत ) कैसे ग्रहण किए गए ? इस प्रकार परीक्षा के लिए समस्या का उत्तर पूछा गया - अभी समय न हुआ, पहिले ही (आप) क्यों निकल गए ? उसके हृदय में उत्पन्न भाव को जानकर साधु के द्वारा कहा गया- ज्ञान समय ( है ) । कब मृत्यु होगी, ऐसा ज्ञान किसी को नहीं है । इसलिए समय के बिना निकल गया । वह उत्तर को समझकर सन्तुष्ट हुई । मुनि के द्वारा वह भी पूछी गई — तुम्हें उत्पन्न हुए कितने वर्ष हुए ? मुनि के प्रश्न के आशय को जानकर बीस वर्ष हो जाने पर भी उसके द्वारा बारह वर्ष कहे गए । फिर, तुम्हारे स्वामी ( का जन्म हुए) कितने वर्ष हुए ? इस प्रकार (यह ) पूछा गया । उसके द्वारा प्रिय का ( जन्म हुए ) पच्चीस वर्ष हो जाने पर भी पाँच वर्ष कहा गया । इस प्रकार सासू का छः माह कहा गया, ससुर के लिए पूछने पर 'वह अभी उत्पन्न नहीं हुआ है' इस प्रकार शब्द कहे गए । प्राकृत अभ्यास सौरभ ] Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only [ 197 www.jainelibrary.org
SR No.002575
Book TitlePrakrit Abhyasa Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1997
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size7 MB
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