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आयारो
मनन करने से वस्तु सत्य का बोध होता है और आत्म-तुला की अनुभूति से दूसरे प्राणियों के साथ तादात्म्य स्थापित होता है । अहिंसा इसके अनन्तर फलित होती है ।
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सूत्र - ९३-९८
२८. गुण - इन्द्रिय - विषय - पांच हैं: रूप, शब्द, गंध, रस और स्पर्श । ये ऊंची, नीची, तिरछी, पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण- इन सभी दिशाओं में मिलते हैं। दिशा ज्ञान का एक आयाम है। इसके माध्यम से ही व्यक्ति विषयों को ग्रहण करता है । विषयों का ग्रहण और उनके प्रति मूर्च्छा- ये दो अवस्थाएं हैं । साधक को मूर्च्छा नहीं करनी चाहिए। मूर्च्छा-लोक में विचरने वाला साधक इच्छा के अधीन होकर विषयलोलुप हो जाता है । वह मुनि-धर्म को छोड़कर पुनः गृहवासी हो जाता है । यदि वह गृहवासी नहीं होता, तो मुनि के वेष में ही गृहवासी जैसा आचरण करने लग जाता है ।
जैसे आवर्त में फंसा हुआ व्यक्ति निकल नहीं पाता, वैसे ही विषयों में फंसा हुआ व्यक्ति उनके चक्र से छूट नहीं पाता ; इसीलिए सूत्रकार ने विषय और आवर्त के एकत्व का प्रतिपादन किया है।
सूत्र--१०१
२९. नियुक्ति में वनस्पतिकाय के शस्त्र इस प्रकार निर्दिष्ट हैं
१. हाथ, पैर और मुंह |
२. स्वकाय शस्त्र लाठी आदि ।
९. परकाय शस्त्र -
- पाषाण, अग्नि आदि ।
४. तदुभय शस्त्र ५. भाव शस्त्र
- - कुल्हाड़ी आदि । असंयम ।
सूत्र - ११३
३०. नींद, दोहद, रोग आदि पर्यायों से भी मनुष्य और वनस्पति की तुलना की जा सकती है ।
सूत्र - ११८
३१. अण्डज - अण्डों से उत्पन्न होने वाले मयूर आदि अण्डज कहलाते हैं ।
पोतज - 'पोत' का अर्थ शिशु है । जो शिशु रूप में उत्पन्न होते हैं, जिन पर कोई आवरण लिपटा हुआ नहीं होता, वे पोतज कहलाते हैं। हाथी, चर्म- जलौका आदि पोतज प्राणी हैं ।
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