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सूत्र -- ५७
२१. निर्युक्ति में जलकाय के शस्त्र इस प्रकार निर्दिष्ट हैं
१. उत्सेचन – कुए से जल निकालना ।
२. गालन - जल छानना ।
३. धावन - जल से उपकरण आदि धोना ।
४. स्वकाय शस्त्र५. परकाय शस्त्र - मिट्टी, तेल, क्षार, अग्नि आदि ।
६. तदुभय - जलमिश्रित मिट्टी । ७. भाव शस्त्र
असंयम |
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-नदी का जल तालाब के जल का शस्त्र है ।
सूत्र - ५८
२२. परिव्राजक अदत्त जल का प्रयोग नहीं करते थे । वे जलाशय के स्वामी की अनुमति लेकर ही जल लेते थे । इस पर भी जैन श्रमणों का यह तर्क था कि क्या जल के जीवों ने अपने प्राण हरण की अनुमति दी है ? यदि नहीं दी है, तब सजीव जल का प्रयोग कर उनके प्राणों का हरण करना अदत्तादान कैसे नहीं होगा ?
सूत्र - ५९
२३. जैन श्रमण कहते थे - सजीव जल का प्रयोग करना हिंसा है, अदत्तादान है । आजीवक आदि श्रमणों का अभिमत था कि जल सजीव नहीं है, अतः इसका प्रयोग करना न हिंसा हैं और न अदत्तादान है । हम जल का प्रयोग कर सकते हैं, फिर भी केवल पीने के लिए उसका प्रयोग करते हैं । "
१
आयारी
सूत्र - ६०
२४. परिव्राजक आदि स्नान, पान आदि सीमित प्रयोजनों से जलकायिक जीवों की परिमित हिंसा करते हैं, किन्तु उनके लिए हिंसा सर्वथा अकरणीय नहीं है ।
सूत्र - ६८
२५. इस सूत्र से फलित होता है कि प्रत्यक्ष ज्ञान की उपलब्धि के चार सोपान है - वस्तु को जानने के दो साधन हैं :
१. परोक्ष ज्ञान
२. प्रत्यक्ष ज्ञान
१. इस प्रसंग में मोवाइय, सूत्र १११ - ११३ और १३७-१३८ द्रष्टव्य हैं ।
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