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शस्त्र-परिज्ञा
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समता कोई सम्प्रदाय नहीं है। यह स्वयं धर्म है । शान्ति की आराधना करने वाले जितने पुरुष हुए हैं, वे सब इस पथ पर चले हैं, चलते हैं और चलेंगे। फिर भी यह संकीर्ण नहीं होता। इसलिए यह महापथ है।
सूत्र-३९ १८. शिष्य ने पूछा-भंते ! अपने अस्तित्व का अस्वीकार कोई भी व्यक्ति नहीं करता, फिर यह कैसे कहा गया-साधक अपने अस्तित्व का अभ्याख्यान न करे ?
आचार्य ने कहा-जो व्यक्ति जलकायिक जीव के अस्तित्व को अस्वीकार करता है, वह वास्तव में अपने अस्तित्व का अस्वीकार करता है। सूक्ष्म जीवों की सत्ता को नकारना वास्तव में अपने अस्तित्व को नकारना है।
__ अपने अस्तित्व को अस्वीकार किए बिना जलकायिक जीव के अस्तित्व का अस्वीकार नहीं किया जा सकता । अतः यह कहना उचित है-जो अपने अस्तित्व को अस्वीकार करता है, वही व्यक्ति वास्तव में जलकायिक जीव के अस्तित्व का अस्वीकार करता है। __असत्य आक्षेप, मिथ्या अभियोग, असत् आरोप या यथार्थ की अयथार्थ रूप में स्वीकृति-ये सब अभ्याख्यान हैं।
सूत्र---५४-५५ १९. जल में जीव का होना और जल का स्वयं जीव होना-ये दो बातें हैं । क्षेत्रीय निमित्त से जल में कृमि आदि उत्पन्न हो जाते हैं, वे जल-निश्रित जीव कहलाते हैं। इनका स्वीकार सब दार्शनिक करते थे। जल के रूप में उत्पन्न होने वाले जीव जलकायिक जीव कहलाते हैं। इनकी स्वीकृति महावीर के दर्शन में ही मिलती है।
जल-निश्रित जीवों और जलकायिक जीवों के सम्बन्ध-सूचक चार विकल्प होते हैं
१. सजीव जल और जल-निश्रित जीवों का अस्तित्व। २. सजीव जल, किन्तु जल-निश्रित जीवों का अभाव । ३. निर्जीव जल, किन्तु जल-निश्रित जीवों का अस्तित्व । ४. निर्जीव जल और जल-निश्रित जीवों का अभाव। जल तीन प्रकार का होता है-सजीव, निर्जीव और मिश्र ।
२०. शस्त्र (विरोधी वस्तु) के प्रयोग से सजीव जल मिश्र या निर्जीव बन जाता है। शस्त्र का प्रयोग अल्प मात्रा में होने पर वह मिश्र और पूर्ण मात्रा में होने पर निर्जीव बन जाता है।
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