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आयारो
मूल आधार है । वक्र मनुष्य धार्मिक नहीं हो सकता। धर्म शुद्ध आत्मा में रहता है । शुद्ध वह है, जो ऋजु है। ___ वक्रता उसे करनी होती है, जो सत्य को उलटना चाहता है। जो सत्य को यथार्थ रूप में प्रकट करना चाहता है, वह शरीर, भाव और भाषा से ऋजु होगा। उसकी कथनी और करनी में संवादिता होगी। इसी आधार पर भगवान् ने सत्य के चार प्रकार प्रतिपादित किए हैं
१. शरीर की ऋजुता, २. भाव की ऋजुता, ३. भाषा की ऋजुता, ४. प्रवृत्ति में संवादिता।
सूत्र-३६ १६. लक्ष्य की पूर्ति के लिए अभिनिष्क्रमण करते समय भाव-धारा वर्धमान होती है। उसका हीयमान होना इष्ट नहीं है, फिर भी काल की लम्बी अवधि में वह अवस्थित नहीं रहती, कभी कभी हीन हो जाती है। इसीलिए आचार्य ने साधक को यह निर्देश दिया-श्रद्धा को बढ़ाओ। यदि बढ़ा न सको, तो अभिनिष्क्रमणकाल में जो श्रद्धा थी, उसे कम मत होने दो। यदि लाभ न कमा सको तो कम से कम मूल पूंजी को सुरक्षित रखो । श्रद्धा की हानि चित्त की चंचलता या लक्ष्य के प्रति शंका होने से होती है।
सूत्र--३७ १७. अहिंसा मोक्ष का पथ है। सर्वत्र, सर्वदा और सबके लिए है। इसलिए यह महापथ है। जो इसके प्रति समर्पित हुए हैं और होंगे, उन सब को मोक्ष प्राप्त होगा।
__ महापथ का अर्थ कुण्डलिनी-प्राणधारा भी है। पराक्रमी साधक ऊर्ध्वगमन के लिए इस प्राणधारा के प्रति समर्पित हो जाता है-पृष्ठरज्जु के माध्यम से प्राणधारा को मस्तिष्क की ओर प्रवाहित कर देता है। उसके हिंसा के संस्कार समाप्त हो जाते हैं।
जो आचरण देश-काल से सीमित होता है, वह पथ है। समता देशकाल की सीमा से अतीत आचरण है। वह प्रत्येक देश और प्रत्येक काल में आचरणीय है। इसलिए वह महापथ है ।
१. स्थानांग सूत्र, ४।१०२।
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