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शस्त्र-परिज्ञा
भगवान् ने कहा---आर्य ! पृथ्वीकायिक जीव में भी प्राणों का स्पन्दन है; पर इन चर्म-चक्षुओं से तुम उसे देख नहीं पाते। मूच्छित मनुष्य की चेतना जैसे बाहर से लुप्त होती है, वैसे ही स्त्यानगृद्धि निद्रा के सतत उदय से उसकी चेतना सतत मूच्छित और बाहर से लुप्त रहती है । मूर्छा दो प्रकार की होती है१. बाह्य मूर्छा, २. अन्तरंग मुर्छा।
अन्तरंग मूर्छा होने पर चेतना की शून्यता आ जाती है। फिर कोई अनुभव नहीं होता। बाहरी चेतना के मूच्छित होने पर भी मनुष्य को कष्ट का अनुभव होता है।
पृथ्वीकायिक जीवों की चेतना बाहरी रूप में मूच्छित होती है। वे अन्तर में चेतना-शून्य नहीं होते। इसीलिए वे मूच्छित मनुष्य की भांति कष्ट का अनुभव करते हैं।
प्रथम दृष्टान्त में सूत्रकार ने पृथ्वीकायिक जीव के जीवत्व और वेदना की जन्मना इन्द्रिय-विकल मनुष्य से, दूसरे में कृत्रिम इन्द्रिय-विकल मनुष्य से और तीसरे में मूच्छित मनुष्य से तुलना की है।
__ गौतम-भंते ! पृथ्वीकायिक जीव को आक्रान्त करने पर उसे किस प्रकार की वेदना का अनुभव होता है ?
__ भगवान्-गौतम ! कोई तरुण और बलिष्ठ पुरुष किसी जरा-जर्जरित पुरुष के सिर को दोनों हाथों से आहत करता है। वह उस तरुण के द्वारा दोनों हाथों से सिर में आहत होने पर कैसी वेदना का अनुभव करता है ?
गौतम-भंते ! वह वृद्ध अनिष्ट वेदना का अनुभव करता है।
भगवान्-गौतम ! पृथ्वीकायिक जीव आक्रान्त होने पर उस वृद्ध पुरुष से कहीं अधिक अनिष्टतर वेदना का अनुभव करता है।
सूत्र--३५ १५. साध्य की प्राप्ति के तीन सूत्र हैं
१. आचरण की ऋजुता, २. साध्य-निष्ठा, ३. साध्य-प्राप्ति के लिए उचित प्रयत्न । सूत्रकार ने इन्हीं तीन सूत्रों से अनगार की कसौटी की है। ऋजुता धर्म का
१. भगवती सूत्र, १९३५ ।
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