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आयारो
४. पूजा पाने (प्रतिदान) के लिए मनुष्य युद्ध आदि विविध प्रवृत्तियां करता
५. जन्म : संतान की प्राप्ति तथा अपने भावी जन्म की चिन्ता से मनुष्य अनेक प्रकार की प्रवृत्तियां करता है।
६. मरण : वैर-प्रतिशोध, पितृ-पिण्डदान आदि प्रवृत्तियां मनुष्य मृत्यु के परिपार्श्व में करता है।
७. मुक्ति : मुक्ति की प्रेरणा से मनुष्य अनेक प्रकार की उपासना आदि प्रवृत्तियां करता है।
८. दुःख-प्रतिकार : रोग, आतंक आदि मिटाने के लिए मनुष्य औषधियों, रसायनों आदि का निर्माण करता है। उनके निर्माण के लिए पशु-पक्षियों की हिंसा करता है।
सूत्र-१२
८. कर्म शब्द के अनेक अर्थ होते हैं। यहां उसका अर्थ है-क्रिया। यहां मन, वचन और काया की क्रिया का निरोध करने वाले को मुनि कहा गया है। गीता में इस कोटि के साधक को पंडित कहा गया है---
यस्य सर्वसमारम्भाः, कामसंकल्पवजिताः।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं, तमाहुः पंडितं बुधाः ॥४।१९ गीता (१८१२,३) में कर्म-योग और कर्म-संन्यास दोनों प्रतिपादित हैं। कर्मयोग के तीन अंग है--
१. फल की आकांक्षा का वर्जन ; २. कर्तृत्व के अभिमान का परित्याग; ३. ईश्वर को कर्म का समर्पण ।
कर्म-संन्यास के विषय में तीन अभिमत मिलते हैं१. कुछ विद्वान काम्य कर्मों के त्याग को संन्यास कहते हैं। २. कुछ विद्वान् कर्म के फल-त्याग को त्याग कहते हैं। ३. कुछ विद्वान् मानते हैं कि सभी कर्म दोषयुक्त हैं, अत: वे त्यागने योग्य हैं।
भगवान महावीर ने कर्म-योग और कर्म-त्याग दोनों का समन्वित मार्ग निरूपित किया था। उनकी साधना-पद्धति का प्रमुख अंग है-संवर-कर्म का निरोध । किन्तु वह प्रथम चरण में ही सम्भव नहीं है। पहले कर्म का शोधन (निर्जरा) होता है, फिर कर्म का निरोध । पूर्ण कर्म-निरोध की स्थिति मुक्त होने के कुछ ही क्षणों पूर्व प्राप्त होती है। क्रिया में से जैसे-जैसे आसक्ति और कषाय के अंश को कम किया जाता है, वैसे-वैसे कर्म का शोधन होता चला जाता है। कर्मसमारम्भ-परिज्ञा के द्वारा कर्म का शोधन और निरोध-दोनों अभिहित हैं।
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