SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 82
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शस्त्र-परिज्ञा ५५ सूत्र-५ ५. अहिंसा के चार मुख्य आधार हैं आत्मवाद, लोकवाद, कर्मवाद और क्रियावाद । आत्मा अपने स्वरूप में अमूर्त है। वह इन्द्रियों के द्वारा जाना नहीं जा सकता। वह शरीर के माध्यम से ही जाना जाता है। जैसे आत्मा का अस्तित्व है, वैसे ही लोक का अस्तित्व है । आत्मा और लोक, दोनों पारमार्थिक सत्ताएं हैं। शरीर-तन्त्र कर्म से संचालित होता है । कर्म-तन्त्र क्रिया से संचालित होता है। इस संसार की विविधता या परिवर्तन का मूल हेतु क्रिया है। जीव में जब तक प्रकम्पन, स्पन्दन, क्षोभ और विविध भावों का परिणमन होता है, तब तक वह कर्म-परमाणुओं से बंधता रहता है । वह कर्म-परमाणुओं से बद्ध होता है, तब नाना योनियों में अनुसंचरण करता है। आत्मा के अस्तित्व का स्पष्ट लक्षण हैअनुसंचरण या पुनर्जन्म । उसका हेतु है-कर्मबन्ध और उसका हेतु है-क्रिया । यह सब लोक में ही घटित होता है। इस लोक में अपनी आत्मा जैसी अनेक आत्माएं हैं और पुद्गल द्रव्य भी हैं। अन्य आत्माओं तथा पौद्गलिक पदार्थों के प्रति अपने व्यवहार का संयम करना अहिंसा का मूल आधार है। सूत्र-६-८ ६. भगवान महावीर के दर्शन का संक्षिप्त सार यह है-- क्रिया (आश्रव) अनुसंचरण का और अक्रिया (संवर) उसके निरोध का हेतु है। उत्तरवर्ती आचार्यों ने इस तथ्य को निम्न श्लोक में प्रगट किया है आश्रवो भवहेतुः स्यात्, संवरो मोक्षकारणम् । इतीय माहती दृष्टि, रन्यदस्याः प्रपंचनम् ॥ -आश्रव संसार का हेतु है और संवर मोक्ष का। महावीर की मूल दृष्टि इतनी ही है, शेष सब उसका विस्तार है। सूत्र-१० ७. १. जीवन की सुरक्षा के लिए मनुष्य विविध औषधियों और रसायनों का सेवन करता है । 'जीवो जीवस्य जीवनम्' यह मानकर अपने जीवन के लिए दूसरे जीवों का वध और शोषण करता है। २. प्रशंसा, प्रसिद्धि या कीर्ति के लिए मनुष्य मल्लयुद्ध, तैराकी, पर्वतारोहण आदि अनेक प्रतियोगितात्मक प्रवृत्तियां करता है। ३. सम्मान के लिए मनुष्य धन का अर्जन, बल का संग्रह आदि प्रवृत्तियां करता है। For Private & Personal Use Only Jain Education International 2010_03 www.jainelibrary.org
SR No.002574
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra Aayaro Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages388
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy