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आयारो
उसकी आंखों से आनन्द के आंसू टपकने लगे। वह अपने क्षोभ को भूलकर संयम में स्थिर हो गया। उसने भगवान् को नमस्कार कर कहा--"भन्ते ! मैं अपनी दो आंखों को छोड़कर शेष सारा शरीर श्रमणों के लिए समर्पित करता हूं। वे मेरे इस शरीर से जो सेवा लेना चाहें, वह लें।
पूर्वजन्म की स्मृति के लिए निम्न विषयों पर चिन्तन किया जातामैं किस दिशा से आया हूं? क्या पूर्व से आया हूं या पश्चिम से ? उत्तर से आया हूं या दक्षिण से ? ऊर्ध्व दिशा से आया हूं या अधो दिशा से ? मैं कौन हूं? मैं कौन था ? मैं क्या होऊंगा?
इन प्रश्नों में से किसी एक प्रश्न को लेकर साधक ध्यान में बैठ जाता और मन को उसी समस्या में केन्द्रित कर देता। इस साधना से उसे जाति-स्मृति हो जाती।
भगवान् महावीर ने जिस अहिंसात्मक आचार का निरूपण किया, उसका आधार आत्मा है । आत्मा का स्पष्ट बोध होने पर ही अहिंसात्मक आचार में आस्था हो सकती है। इसीलिए सूत्रकार ने प्रारम्भ में आत्मा का अस्तित्व स्थापित किया है।
सूत्र-४ ४. कोहम् (मैं कौन हूं) और सोहम् (मैं वह हूं)-ये दो पद आत्मवादी दर्शन के दो चक्षु हैं। पहले पद में अपने अस्तित्व की जिज्ञासा है और दूसरे में अपने अस्तित्व का प्रत्यक्ष बोध है। 'सोहम्' यह तर्कशास्त्र का प्रत्यभिज्ञा प्रमाणअतीत और वर्तमान का संकलनात्मक ज्ञान है।
शिष्य ने पूछा-आत्मा का लक्षण क्या है ? आचार्य ने उत्तर दिया-सोहम् ।
शरीर अहंकार-शून्य है। उसमें जो अहंकार है, जैसे-मैं करता हूं, मैंने किया और मैं करूंगा, वही आत्मा (चेतन) का लक्षण है।
योगशास्त्र में 'सोहम्' बहुत बड़ा जप-मन्त्र है। इससे आत्मा और परमात्मा के एकत्व की अनुभूति पुष्ट होती है । यः परात्मा स एवाहम्-जो परमात्मा है, वही
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