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शस्त्र-परिज्ञा
३२. जो पृथ्वीकायिक जीव पर शस्त्र का समारम्भ नहीं करता, वह इन आरम्भों
(तत्सम्बन्धी व तदाश्रित जीव-हिंसा की प्रवृत्ति) से मुक्त हो जाता है।
३३. यह जानकर मेधावी मनुष्य स्वयं पृथ्वी-शस्त्र का समारंभ न करे, दूसरों से
उसका समारम्भ न करवाए, उसका समारम्भ करने वालों का अनुमोदन न करे।
३४. जिसके पृथ्वी-सम्बन्धी कर्म-समारम्भ परिज्ञात होते हैं, वही परिज्ञात-कर्मा (कर्म-त्यागी) मुनि होता है।
-ऐसा मैं कहता हूं।
तृतीय उद्देशक
लक्ष्य के प्रति समर्पण ३५. मैं कहता हूं-जिस [आचरण] से अनगार होता है और जिस [आचरण]
से अनगार नहीं होता। जिसका आचरण ऋजु होता है, जो मुक्ति के पथ पर चलता है और जो माया नहीं करता (शक्ति का संगोपन नहीं करता) वह अनगार होता है। [इसके विपरीत आचरण करने वाला अनगार नहीं होता] ।
३६. वह जिस श्रद्धा से अभिनिष्क्रमण करे, उसी श्रद्धा को बनाए रखे, चित्त की __ चंचलता के स्रोत में न बहे । १५
३७. वीर पुरुष महापथ के प्रति प्रणत (समर्पित) हो चुके हैं।१७
जलकायिक जीवों का अस्तित्व और अभयदान ३८. मुनि जलकायिक लोक को आज्ञा (अतिशय ज्ञानी के वचन) से जानकर उसे
अकुतोभय बना दे-~-किसी भी दिशा से भय उत्पन्न न करे।
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