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सम्यक्त्व
और कर्म का मोक्ष (क्षय या निर्जरा) करता है। द्वितीय भंग शून्य है । आस्रव हो और निर्जरा न हो, ऐसा हो नहीं सकता।
तृतीय भंग शैलेशी अवस्था की अपेक्षा से प्रतिपादित है। शैलेशी (सर्वथा निष्प्रकम्प) मुनि आस्रवक (कर्म का आकर्षक) नहीं होता। उसके केवल परिस्रव होता है-संचित कर्म का क्षय होता है।
चतुर्थ भंग मुक्त आत्मा की अपेक्षा से प्रतिपादित है । वह आस्रव और परिस्रव दोनों ही नहीं होता । वह कम के बंध और मोक्ष दोनों से अतीत होता है।
प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या अनेक नयों से की जा सकती हैहेतु की दृष्टि सेअसंबुद्ध व्यक्ति के लिए विषय-सामग्री आस्रव की हेतु है। संबुद्ध व्यक्ति के लिए वही परिस्रव की हेतु बन जाती है। अर्हत् या मुनि संबुद्ध व्यक्ति के लिए परिस्रव के हेतु होते हैं ।
असंबुद्ध के लिए वे आस्रव के हेतु हो जाते हैं। __ अतः यह नियम बनता है कि जितने आस्रव के हेतु हैं, उतने ही परिस्रव के हेतु हैं और जितने परिस्रव के हेतु हैं, उतने ही आस्रव के हेतु हैं।
यथाप्रकारा यावन्तः, संसारावेशहेतवः ।
तावन्तस्तद्विपर्यासाद, निर्वाणसुखहेतवः ॥ जैसे और जितने संसार-आवेश के हेतु है, वैसे और उतने ही निर्वाण-सुख के हेतु हैं।
क्रिया की दृष्टि सेअसंयमी का गमन आस्रव होता है । संयमी का गमन परिस्रव होता है ।
प्रस्तुत सूत्र में वस्तु की अनैकान्तिकता का निरूपण है। हम एकांगी दष्टि से किसी वस्तु, घटना या भावधारा की सही व्याख्या नहीं कर सकते। आचार्य अमितगति ने योगसार में लिखा है
अज्ञानी बध्यते यत्र, सेव्यमानेऽक्षगोचरे । तत्र व मुच्यते ज्ञानी, पश्यताश्चर्यमीदृशम् ॥
(--योगसार, ६।१८) -इन्द्रिय-विषय का सेवन करने पर जहां अज्ञानी कर्म-बंध को प्राप्त होता है, वहां ज्ञानी कर्म-बंधन से छूटता है-कर्म की निर्जरा करता है। इस आश्चर्य को देखो।
आकर्षण और बंध की दृष्टि से
जो कर्म को आकर्षित करते हैं, वे उसका बन्ध करते हैं।
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