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टिप्पण
सूत्र-७ १ पुत्र, धन और जीवन-ये तीन मुख्य एषणाएं (इच्छाएं) हैं । साधक को इन तीनों एषणाओं तथा अन्य सभी लौकिक एषणाओं से दूर रहना चाहिए।
सूत्र-९ २. भगवान् महावीर ने प्रत्येक आत्मा में स्वतन्त्र चैतन्य की क्षमता प्रतिपादित की । इस सिद्धान्त के आधार पर उन्होंने कहा- तुम स्वयं सत्य की खोज करो।
उन्होंने नहीं कहा कि 'मैं कहता हूँ, इसलिए अहिंसा-धर्म को स्वीकार करो।' उन्होंने कहा-"अहिंसा-धर्म के बारे में मैं जो कह रहा हूं, वह प्रत्यक्षज्ञानी के द्वारा दष्ट है, आचार्यों से श्रुत है, मनन द्वारा मत और चिन्तन द्वारा विज्ञात है।"
किसी प्रत्यक्षज्ञानी का दर्शन (दृष्ट सत्य) भी श्रवण, मनन और विज्ञान के द्वारा ही स्वीकृत होता है । इसमें श्रद्धा का आरोपण नहीं, यह ज्ञान के विकास का उपक्रम है।
सूत्र-१२ ३. आस्रव, परिस्रव, अनास्रव और अपरिस्रव की चतुभंगी (चार विकल्प) होती है । मूल सूत्र में प्रथम और चतुर्थ भंग का निर्देश है । शेष दो भंग (द्वितीय और तृतीय) इस प्रकार हैंख. जो आस्रव हैं-जो कर्म का बंध करते हैं,
वे अपरिस्रव हैं-वे कर्म का मोक्ष नहीं करते। जो अपरिस्रव हैं-जो कर्म का मोक्ष नहीं करते,
वे आस्रव हैं--वे कर्म का बंध करते हैं। ग. जो अनास्रव हैं-जो कर्म का बंध नहीं करते,
वे परिस्रव हैं-वे कर्म का मोक्ष करते हैं । जो परिस्रव हैं--जो कर्म का मोक्ष करते हैं। वे अनास्रव हैं-वे कर्म का बंध नहीं करते। प्रथम भंग सामान्य है । साधारणतया प्रत्येक व्यक्ति कर्म का बंध करता है
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