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________________ सम्यक्त्व १६७ ४७. [जिसके भोगेच्छा का संस्कार क्षीण हो जाता है, वही वास्तव में प्रज्ञानवान, बुद्ध और हिंसा से उपरत होता है। ४८. [ भोगेच्छा की निवृत्ति होने पर ही हिंसा की निवृत्ति होती है,] यह सत्य है, इसे तुम देखो। ४६. [भोगेच्छा से प्रेरित] पुरुष बन्ध, घोर वध और दारुण परिताप का प्रयोग करता है। ५०. इन्द्रियों की बहिर्मुखी प्रवृत्ति को रोककर इस मरण-धर्मा जगत् में तुम अमृत (निष्कर्म) को देखो। ५१. कर्म अपना फल देते हैं, यह देखकर ज्ञानी मनुष्य उनके संचय से निवृत्त हो जाता है। ५२. हे आर्यो ! जो मुनि वीर, सम्यक्-प्रवृत्त, [ज्ञान, दर्शन और चारित्र] सहित; सतत इन्द्रिय-जयी, प्रतिपल जागरूक, स्वतः उपरत, जो लोक जैसा है, उसे वैसा ही देखने वाले, पूर्व पश्चिम, दक्षिण और उत्तर-सभी दिशाओं में सत्य में स्थित हुए हैं ; उन पूर्व-विशेषण से विशेषित मुनियों के सम्यग् ज्ञान का हम निरूपण करेंगे। ५३. क्या सत्य-द्रष्टा के कोई उपाधि होती है या नहीं होती ? नहीं होती। -~-ऐसा मैं कहता हूं Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002574
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra Aayaro Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages388
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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