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शीतोष्णीय
किया जाता है कि भविष्य भी भोग से तृप्त नहीं होगा ।
अतीत के भोगों की स्मृति और भविष्य के भोगों की अभिलाषा से राग, द्वेष और मोह उत्पन्न होते हैं । इसलिए तथागत ( वीतरागता की साधना करने वाले) अतीत और भविष्य के अर्थ को नहीं देखते - राग-द्वेषात्मक चित्त-पर्याय का निर्माण नहीं करते ।
जिसका आचार राग, द्वेष और मोह को शान्त या क्षीण करने वाला होता है वह विधूत कल्प कहलाता है । वह तथागत विधूत-कल्प 'एयाणुपस्सी' होता है । - १. एतदनुपश्यी — वर्तमान में घटित होने वाले यथार्थ को देखने वाला ।
२. एकानुपश्यी -- अपनी आत्मा को अकेला देखने वाला ।
३. एजानुपश्यी -- धुताचार के द्वारा होने वाले प्रकम्पनों या परिवर्तनों
को देखने वाला ।
वह राग और द्वेष से मुक्त रहकर कर्म शरीर को क्षीण करता है ।
सूत्र - ६४
२१. आत्मा शब्द का प्रयोग चैतन्य-पिण्ड, मन और शरीर के अर्थ में होता है । अभिनिग्रह का अर्थ है - समीप जाकर पकड़ना । जो व्यक्ति मन के समीप जाकर उसे पकड़ लेता है, उसे जान लेता है, वह सब दुःखों से मुक्त हो जाता है । निकटता से जान लेना ही वास्तव में पकड़ना है । नियन्त्रण करने से प्रतिक्रिया पैदा होती है । उससे निग्रह नहीं होता । धर्म के क्षेत्र में यथार्थ को जान लेना ही निग्रह है ।
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सूत्र -७४
२२. द्रव्य के त्रैकालिक पर्यायों को जानने वाले व्यक्ति का ज्ञान इतना विकसित होता है कि उसमें सब द्रव्यों को जानने की क्षमता होती है । जिसमें सब द्रव्यों को जानने की क्षमता होती है, वही वास्तव में एक द्रव्य को जान सकता है ।
द्रव्य के पर्याय दो प्रकार के होते हैं—स्वपर्याय और परपर्याय | स्वपर्याय और परपर्याय – इन दोनों को जाने बिना एक द्रव्य को भी पूर्णतः नहीं जाना जा सकता | स्वपर्याय और परपर्याय–इन दोनों पर्यायों से एक द्रव्य को जानने का अर्थ सब द्रव्यों को जानना है ।
इसका आध्यात्मिक तात्पर्य इस भाषा में व्यक्त किया जा सकता हैजो आत्मा को जानता है, वह सबको जानता है,
जो सबको जानता है, वही आत्मा को जानता है ।
सूत्र - ७६, ७९
२३. इन दोनों सूत्रों की व्याख्या अनेक नयों से की जा सकती है ।
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