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आयारो
के प्रत्यक्ष में पाप नहीं करता, वसे ही परोक्ष में भी पाप नहीं करता । ____ जो व्यावहारिक बुद्धि वाला होता है, वह दूसरों के प्रत्यक्ष में पाप नहीं करता, किन्तु परोक्ष में पाप करता है।
शिष्य ने पूछा--गुरुदेव ! जो व्यक्ति दूसरों के भय, आशंका या लज्जा से प्रेरित हो पाप नहीं करता, क्या यह आध्यात्मिक त्याग है ?
गुरु ने कहा-यह आध्यात्मिक त्याग नहीं है । जिसके अंत:करण में पाप-कर्म छोड़ने की प्रेरणा नहीं है, वह निश्चय नय में ज्ञानी नहीं है । जो दूसरों के भय से पाप-कर्म नहीं करता, वह व्यवहार नय में ज्ञानी है।
सूत्र--५५ १८. दूसरों के प्रत्यक्ष में पाप-कर्म न करना वैसे ही परोक्ष में न करना समता है। जो साधक प्रत्यक्ष व परोक्ष दोनों में एक जैसा आचरण करता है, उसी का चित्त प्रसन्न (निर्मल) रह सकता है। छिप-छिप कर पाप करने वाले का चित्त प्रसन्न नहीं रहता। वह मलिन हो जाता है ।
सूत्र-५८ यस्त हस्तौ च पादौ च, जिह्वाग्रं च सुसंयतम् ।
इन्द्रियाणि च गुप्तानि, राजा तस्य करोति किम् ? जिसका हाथ, पैर और जिह्वाग्र संयत होता है और इन्द्रियां विजित होती हैं उसका राजा क्या बिगाड़ेगा ?
सूत्र-५९-६० २०. इनकी व्याख्या दार्शनिक और साधना दोनों नयों से की गई है। दार्शनिक नय से व्याख्या इस प्रकार है
कुछ दार्शनिक भविष्य के साथ अतीत की स्मृति नहीं करते । वे अतीत और भविष्य में कार्य-कारण-भाव नहीं मानते कि जीव का अतीत क्या था और भविष्य क्या होगा।
कुछ दार्शनिक कहते हैं-इस जीव का जो अतीत था, वही भविष्य होगा।
तथागत अतीत और आगामी अर्थ को स्वीकार नहीं करते। महर्षि इन सब मतों की अनुपश्यना (पर्यालोचना) कर धुताचार के आसेवन द्वारा कर्म-शरीर का शोषण कर उसे क्षीण कर डालता है।
साधना-नय की व्याख्या इस प्रकार है
कुछ साधक अतीत के भोगों की स्मृति और भविष्य के भोगों की अभिलाषा नहीं करते। कुछ साधक कहते हैं-- अतीत भोग से तृप्त नहीं हुआ; इससे अनुमान
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