________________ शीतोष्णीय 147 सूत्र-३५ 13. आत्मा है, फिर भी वह दृष्ट नहीं है / उसके दर्शन में बाधक तत्त्व दो हैंराग और द्वेष / ये आत्मा पर कर्म का सघन आवरण डालते रहते हैं; इसलिए उसका दर्शन नहीं होता। राग-द्वेष के छिन्न हो जाने पर आत्मा निष्कर्म हो जाता है। निष्कर्म होते ही वह दृष्ट हो जाता है। निष्कर्मदर्शी के चार अर्थ किये जा सकते हैं--(१) आत्मदर्शी, (2) मोक्षदर्शी, (3) सर्वदर्शी, (4) अक्रियादी। महावीर की साधना का मूल आधार है-अक्रिया / सत् वही होता है, जिसमें क्रिया होती है / आत्मा की स्वाभाविक क्रिया है-चैतन्य का व्यापार। उससे भिन्न क्रिया होती है, वह स्वाभाविक नहीं होती। अस्वाभाविक क्रिया का निरोध ही आत्मा की स्वाभाविक क्रिया के परिवर्तन का रहस्य है। स्वाभाविक क्रिया के क्षण में राग-द्वेष की क्रिया अवरुद्ध हो जाती है / देखें, 4 / 50 / सूत्र-३८ 14. भगवान् महावीर ने दीक्षा की अवधि जीवनपर्यंत बतलाई। जो व्यक्ति सही अर्थ में संयम-दीक्षा की साधना कर लेता है, उसका फिर असंयम-जीवन में लौटना संभव नहीं होता; इसलिए यह अवधि आरोपित नहीं, किन्तु स्वाभाविक है / सूत्र-४२ 15. सूत्रकार ने तृष्णा की तुलना चलनी से की है / तृष्णा चलनी की भांति दुर्भर है। चूर्णिकार ने एक श्लोक उद्धृत किया है न शयानो जयेन्निद्रां, न भुंजानो जयेत् क्षुधाम् / न काममानः कामानां, लाभेनेह प्रशाम्यति // शयन से नींद पर, भोजन से भूख पर और लाभ से कामना पर विजय नहीं पाई जाती। सूत्र-५१ 16. चैतन्य आत्मा का स्वरूप है। उसका अनुभव अप्रमाद है। चैतन्य की विस्मृति हए बिना प्रमाद नहीं हो सकता।। कारागृह की दीवार में हुए छिद्र को जानकर बंदी के लिए प्रमाद करना जैसे श्रेय नहीं होता, वैसे ही मोह के कारागृह की दीवार के छिद्र को जानकर साधक के लिए प्रमाद करना श्रेय नहीं है। सूत्र-५४ 17. पाप- कर्म नहीं करने की प्रेरणा अध्यात्मज्ञान है। अध्यात्मज्ञानी जैसे दूसरों Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org