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आयारो
सूत्र-२७ ८. चूर्णिकार के शब्दों में इस सूत्र का प्रतिपाद्य यह है कि तू किसी का अप्रिय मत कर।
सूत्र-२८ ६. पूर्वजन्म की स्मृति, प्राणी-जगत् को जानने और उनके सुख-दुःख का पर्यालोचन करने की विद्या को जानने वाला त्रिविद्य होता है।
बौद्ध परम्परा के अनुसार तिविज्ज का अर्थ इस प्रकार है-'तीन विद्याएं(१) पूर्व जन्मों को जानने का ज्ञान, (२) मृत्यु तथा जन्म को जानने का ज्ञान (३) तथा चित्त-मलों के क्षय का ज्ञान ।'
कर्म के दो बीज हैं-राग और द्वेष । ये ही दोनों विषमता के बीज हैं। राग से रक्त और द्वेष से द्विष्ट मनुष्य न अपने भावों को देखता है और न सब जीवों की आंतरिक समता को देखता है। जो समता को नहीं देखता, वह किसी के प्रति रक्त होकर पाप करता है, तो किसी के प्रति द्विष्ट होकर पाप करता है। समत्वदर्शी न किसी के प्रति रक्त होता और न किसी के प्रति द्विष्ट होता; इसलिए वह पाप नहीं करता।
सूत्र-३१ १०. पुरुषार्थ-चतुष्टयी में काम साध्य है और अर्थ साधन । प्रस्तुत सूत्र में यही तथ्य प्रतिपादित हुआ है कि काम की आसक्ति ही मनुष्य को अर्थ-संग्रह के लिए प्रेरित करती है।
सूत्र-३२ ११. कुछ व्यक्ति जीवों को मारकर प्रमोद मनाते हैं। कुछ असत्य बोल कर प्रमोद मनाते हैं। इसी प्रकार कुछ व्यक्ति चोरी, अब्रह्मचर्य और संग्रह कर प्रमोद मनाते हैं। ये सभी अपना वैर बढ़ाते हैं।
सूत्र-३४ १२. कुछ दार्शनिक परिणामवादी (अग्रवादी) होते हैं । वे समस्या के मूल को नहीं पकड़ते। उभरी हुई समस्या को सुलझाने का प्रयत्न करते हैं। भगवान् महावीर मूलवादी थे। वे परिणाम की अपेक्षा समस्या के मूल पर अधिक ध्यान देते थे। भगवान् के अनुसार दुःख की समस्या का मूल बीज मोह है। शेष सब उसके पत्र-पुष्प हैं।
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