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शीतोष्णीय
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है, उसका वेदन नहीं करता। वह तितिक्षा को विकसित कर लेता है, इसलिए वह अपने ज्ञान को कष्ट के साथ नहीं जोड़ता।
सूत्र-११ ४. स्वप्न और जागरण सापेक्ष हैं । मनुष्य बाहर में जागता है, तब भीतर में सोता है । वह भीतर में जागता है, तब बाहर में सोता है। बाहर में जागने वाला चैतन्य को विस्मृत कर देता है, इसलिए वह प्रमत्त हो जाता है। प्रमाद का अर्थ है-विस्मृति। भीतर में जागने वाले को चैतन्य की स्मृति रहती है, इसलिए वह अप्रमत्त रहता है। अप्रमाद का अर्थ है-स्मृति । स्मृति जागरूकता है और विस्मृति स्वप्न है।
सूत्र-१८-१९ ५. शरीर, आकृति, वर्ण, नाम, गोत्र, सुख-दुःख का अनुभव, विविध योनियों में जन्म-ये सब आत्मा को विभक्त करते हैं । इस विभाजन का हेतु कर्म है। कर्मबद्ध आत्मा नाना प्रकार के व्यवहारों (विभाजनों) और उपाधियों से युक्त होती है। कर्ममुक्त आत्मा के न कोई व्यवहार होता और न कोई उपाधि ।
सूत्र-२३ ६. रागी राग से दृश्यमान होता है, द्वेषी द्वेष से दृश्यमान होता है, किन्तु वीतराग राग और द्वेष दोनों से दृश्यमान नहीं होता।
सूत्र-२६ ७. जन्म को देखना जन्म की शृंखला को देखना है। जो मन की गहराइयों में उतर कर जन्म को देखता है, वह देखते-देखते जाति-स्मृति को प्राप्त हो जाता है, अतीत के अनेक जन्मों को देख लेता है। जैसे दस-बीस वर्ष पूर्व की घटना हमारी स्मति में उतर आती है, वैसे ही पूर्व-जन्म भी हमारी स्मृति में होना चाहिए। किन्तु ऐसा नहीं होता। उसका कारण संमूढ़ता है। जन्म और मरण के समय होने वाले दुःख से संमूढ़ बने हुए व्यक्ति को पूर्व-जन्म की स्मृति नहीं हो सकती
जातमाणस्स जं दुक्खं, मरमाणस्स जंतुणो।
तेण दुक्खेण संमूढो, जाति ण सरति अप्पणो॥ जन्म को देखने से, उस पर ध्यान केन्द्रित करने से संमूढ़ता दूर हो जाती है और पर्व-जन्म की स्मति हो आती है।
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