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लोक-विजय
२. प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या का दूसरा नय है
दीर्घदर्शी साधक देखता है— लोक का अधो भाग विषय-वासना में आसक्त होकर शोक आदि से पीडित है ।
लोक का ऊर्ध्व भाग भी विषय-वासना में आसक्त होकर शोक आदि से पीडित
है ।
लोक का मध्य भाग भी विषय-वासना में आसक्त होकर शोक आदि से पीडित है ।
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३. प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या का तीसरा नय यह है
दीर्घदर्शी साधक मनुष्य के उन भावों को जानता है, जो अधो गति के हेतु बनते हैं; उन भावों को जानता है, जो ऊर्ध्व गति के हेतु बनते हैं; उन भावों को जानता है, जो तिर्यग् (मध्य) गति के हेतु बनते हैं ।
४. इसकी नाटक -परक व्याख्या भी की जा सकती है
आंखों को विस्फारित और अनिमेष कर उन्हें किसी एक बिन्दु पर स्थिर करना नाटक है । इसकी साधना सिद्ध होने पर ऊर्ध्व, मध्य और अधर - ये तीनों लोक जाने जा सकते हैं । इन तीनों लोकों को जानने के लिए इन तीनों पर ही aree किया जा सकता है ।
भगवान् महावीर ऊर्ध्व लोक, अधो लोक और मध्य लोक में ध्यान लगाकर समाधिस्थ हो जाते थे (आयारो, ९।४।१४ ) ।
इससे ध्यान की तीन पद्धतियां फलित होती हैं
१. आकाश - दर्शन,
२. तिर्यग् भित्ति दर्शन,
३. भूगर्भ-दर्शन ।
आकाश दर्शन के समय भगवान् ऊर्ध्व लोक में विद्यमान तत्त्वों का ध्यान करते थे । तिर्यग् भित्ति दर्शन के समय वे मध्य लोक में विद्यमान तत्त्वों का ध्यान करते थे। भूगर्भ-दर्शन के समय वे अघोलोक में विद्यमान तत्त्वों का ध्यान करते थे । ध्यान-विचार में लोक- चिंतन को आलंबन बताया गया है। ऊर्ध्व लोकवर्ती वस्तुओं का चिन्तन उत्साह का आलम्बन है । अघो लोकवर्ती वस्तुओं का चिन्तन पराक्रम का आलंबन है । तिर्यक् लोकवर्ती वस्तुओं का चिन्तन चेष्टा का आलंबन है। लोकभावना में भी तीनों लोकों का चिन्तन किया जाता है । ( नमस्कार स्वाध्याय, पृ० २४९ )
सूत्र--१२६
१९. चित्त को काम वासना से मुक्त करने का दूसरा आलंबन है—अनुपरिवर्तन के सिद्धान्त को समझना । काम के आसेवन से उसकी इच्छा शांत नहीं होती ।
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