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पचीसवीं निर्वाण शताब्दी का अवसर उपस्थित हुआ और उस निमित्त से आचारांग के अनुवाद का कार्य मैंने प्रारंभ किया। इस कार्य में प्रायः तीन वर्ष लगे । हमारे पहले के वाचन का आधार मेरे सामने था। बौद्ध ग्रंथ विशुद्धिमग्ग, पतंजलि के योगदर्शन तथा अन्य साधना-पद्धतियों का विशेष अनुशीलन किया और अपने साधना के अनुभवों का भी लाभ मिला। इन सबसे लाभ उठाकर आचारांग के साधना-रहस्यों को उद्घाटित करने में सफलता मिली। आचार्यश्री के सतत मार्गदर्शन, प्रेरणा, प्रोत्साहन और सम्यक्करण की भावना ने मेरा पथ सदा आलोकित किया । उस आलोक में मैं अपने लक्ष्य में निर्बाध आगे बढ़ सका।
.इस अनुवाद कार्य में मुनि श्रीचन्द्रजी मेरे साथ रहे। वे केवल लिपिक ही नहीं थे, किन्तु समय-समय पर प्रश्न उपस्थित कर टिप्पण लिखने में मेरा सहयोग भी कर रहे थे । अन्य कार्य उपस्थित होने पर मैंने लिपिकार्य में विद्यार्थी मुनि राजेन्द्रजी को लगाया। वे भी तत्परता से यह कार्य करते रहे। तीसरे वर्ष में मैंने इस कार्य के लिए मुनि महेन्द्रकुमार जी (बी० एस-सी०) का सहयोग लिया। इस अवधि में हमारा कार्य बहुत द्रुत गति से चला। पचीसवीं निर्वाण शती का समय निकट आ रहा था। कार्य की तत्परता का एक निमित्त यह बना। दूसरा निमित्त बना मुनि महेन्द्रकुमार जी की तत्परता और जिज्ञासाओं का सातत्य। उन्होंने टिप्पणों की इतनी अपेक्षाएं मेरे सामने प्रस्तुत कर दी कि मुझे मेरी कल्पना से बहुत अधिक टिप्पण लिखने पड़े। आचार्यश्री उनकी अपेक्षाओं का समर्थन करते रहे। इसलिए वह होना ही था। और, यह कार्य सम्पन्न हो गया। इसकी सम्पन्नता में मेरे अन्यतम सहयोगी मुनि दुलहराजजी मेरे अन्यान्य साहित्यिक कार्यों को संभालते रहे, इसलिए मैं इस कार्य में अधिक समय लगा सका।
__ मैं प्रस्तुत कार्य की सम्पन्नता में आचार्यश्री से प्राप्त महान् अनुदान के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करता हूं। उन सबको, जिनका योग मुझे प्राप्त हुआ है, मैं साधुवाद समर्पित करता हूं। उनके अमूल्य योग का मूल्यांकन ही मैं कर सकता हूं।
आचार्यश्री तुलसी के वाचना-प्रमुखत्व में चल रहा आगम कार्य स्वयं महत्त्वपूर्ण है। उसमें भी प्रस्तुत आगम के कार्य का पहला रूप अधिक महत्त्वपूर्ण होगा और भविष्य की संभावनाओं का आधार प्रस्तुत करेगा। इससे हमारा पथ आलोकित होगा और हम भगवान् महावीर के अनुभवों का साक्षात् कर उनके सान्निध्य का अनुभव कर सकेंगे।
मुनि नथमल
अणुव्रत विहार नई दिल्ली मवम्बर १६७४
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