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भूमिका आचारांग सूत्र आत्म-जिज्ञासा से प्रारंभ होता है। 'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा' जैसे वेदान्त का मूल सूत्र है, वैसे ही, 'अथातो आत्मजिज्ञासा' जैन दर्शन का मूल सूत्र है । आत्मा है, वह नित्यानित्य है, वह कर्ता और भोक्ता है। बन्ध है, और उसके हेतु हैं। मोक्ष है और उसके हेतु हैं। ये सब आचार-शास्त्र के आधारभूत तत्त्व हैं । प्रस्तुत आगम में ये सब चर्चित हैं, इसलिए यह आचार-शास्त्र है।
जैन दर्शन केवल ज्ञान और आचार को मान्य नहीं करता। उसके अनुसार ज्ञान और आचार दोनों समन्वित होकर ही मोक्ष के हेतु बनते हैं। इसलिए ज्ञान से आचार को और आचार से ज्ञान को पृथक् नहीं किया जा सकता। प्रस्तुत आगम में मुख्य रूप से आचार वर्णित है, इसलिए यह आचार-शास्त्र है।
भगवान् महावीर ने आचार का निरूपण व्यापक अर्थ में किया है। उनके अनुसार आचार के पांच प्रकार हैं-ज्ञान आचार, दर्शन आचार, चरित्र आचार, तप आचार और वीर्य आचार । इस निरूपण के अनुसार आचार ज्ञान, दर्शन और चरित्र सबका स्पर्श करता है, इसलिए यह मोक्ष का सम्यक् उपाय है। आचासंग सूत्र में मोक्ष का उपाय वर्णित है इसलिए इसे समग्र प्रवचन का सार कहा गया
भगवान् महावीर के आचार-दर्शन का आधार समता है । जो प्राणी-मान में समत्व का अनुभव करता है तथा लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, जीवन-मरण, निंदाप्रशंसा, मान-अपमान आदि द्वंद्वात्मक परिस्थितियों में समत्व का अनुभव करता है, वह अनाचार का सेवन नहीं करता
समत्तदंसी ण करेति पावं हजारों वर्ष पहले से कर्म-संन्यास और कर्म-योग की चर्चा होती रही है। हर धर्म ने मात्रा-भेद से कर्म को छोड़ने और कर्म करने की बात कही है। गीता में
१. सूयगडो, १।१२।११ : आहंसु विज्जाचरणं पमोक्खो। २. आचारांगनियुक्ति; गाथा :
इत्य य मोक्खोवायो एस य सारो पवयणस्स । ३. आयारो, ३१२८ ।
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