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सम्पादकीय
आचारांग सूत्र के महत्त्व की गाथा बचपन से सुन रहा था। उसके आकर्षणबीज अज्ञात रूप में मेरे मन में अंकुरित थे । कुछ विदेशी विद्वानों का यह स्वर 'आचारांग सूत्र का प्रथम श्रुतस्कन्ध भाषा और शैली की दृष्टि से सबसे प्राचीन है' - यदा-कदा कानों में आता रहता था । मन में अस्पष्ट आकांक्षा थी कि कभी उसका गंभीर अध्ययन करूं ।
आज से लगभग १८ वर्ष पूर्व आचार्यश्री सरदारशहर में चातुर्मास बिता रहे थे । उस समय आचार्य श्री की सन्निधि में साधु-साध्वियों की गोष्ठी में कई दिनों तक मैंने आचारांग सूत्र पर वक्तव्य दिए। उससे मुझे स्वयं तथा श्रोता साधुसाध्वियों को भी आचारांग के महत्त्व की एक नई झलक मिली । वि० सं० २०२३ में आचार्यश्री के समक्ष आचारांग का आद्यंत वाचन प्रारंभ हुआ । उसमें चूर्णि और टीका से मुक्त रहकर स्वतंत्र अर्थ की प्रक्रिया भी चलती थी। हमारा प्रबुद्ध साधु-साध्वी वर्ग अपनी जिज्ञासाओं, तर्कों और समीक्षाओं के द्वारा उस वाचन को और अधिक गंभीर बना देता था । उस समय आचार्यश्री ने एक नया आयाम खोला था । आचारांग पाठी साधु-साध्वियों के लिए आचारांग पर लेख लिखना अनिवार्य था, इसलिए अध्ययन अधिक तलस्पर्शी और नए-नए दृष्टिकोणों का स्पर्श कर चल रहा था। उस समय अध्ययन-परायण साधु-साध्वी वर्ग जितना लाभान्वित हुआ, उससे कहीं अधिक मैं स्वयं लाभान्वित हुआ । मैं दूसरों को पाठ करा रहा था, किन्तु साथ-साथ आचार्यश्री की उपस्थिति में पाठ कर रहा था । मैं विद्यार्थी और पाठक के दोहरे दायित्व को निभा रहा था । उस स्थिति में आचारांग की अतल गहराइयों में निमज्जन के अनेक अवसर आए और मैंने उनमें से एक अवसर को भी खोया नहीं । उस समय मेरे मन में और साथ-साथ अन्य सभी साधु-साध्वियों के मन में आचारांग की वह महिमापूर्ण प्रतिमा उभरी जिसकी पहले कल्पना नहीं थी । हमारे कुछ मुनियों ने कहा - 'हम सोचते थे कि हमारे आगमों में साधना के गंभीर सूत्र नहीं हैं । हमारी धारणा भ्रांत थी और अब वह भ्रांति टूट चुकी है।' उस समय आचार्यश्री ने एक स्वप्न संजोया कि आचारांग का साधनात्मक भाष्य हमें प्रस्तुत करना है। भगवान महावीर की
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