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लोक-विजय
५५. पुरुष अपने ही प्रमाद से नाना रूप योनियों में जाता है और विविध प्रकार
के आघातों का अनुभव करता है।
५६. वह (प्रमत्त पुरुष) [कर्म-विपाक को नहीं जानता हुआ [व्याधि से] हत
और [अपमान से] उपहत होता है । [वह मद से कर्म का संचय कर बारबार जन्म और मरण करता है।
परिग्रह और उसके दोष ५७. भूमि और घर में ममत्व रखने वाले कुछ (अविद्यावान्) पुरुषों को विपुल
[समृद्धि से पूर्ण] जीवन प्रिय होता है। ५८. वे रंग-बिरंगे मणि, कुण्डल, हिरण्य और स्त्रियों का परिग्रह कर उनमें
अनुरक्त हो जाते हैं।
५९. परिग्रही पुरुष में न तप होता है, न शान्ति और न नियम ।
६०. अज्ञानी पुरुष [ऐश्वर्य-] पूर्ण जीवन जीने की कामना करता है । वह बार-बार
[सुख की कामना करता है। [इस प्रकार वह अपने द्वारा कृत कामना की व्यथा से] मूढ़ होकर विपर्यास को प्राप्त होता है-सुख का अर्थी होकर दुःख को प्राप्त होता है।
६१. जो पुरुष मोक्ष की ओर गतिशील हैं, वे इस [विपर्यासपूर्ण जीवन को जीने की
इच्छा नहीं करते विपर्यासपूर्ण जीवन जीने वाले के] जन्म-मरण को जानकर वह मोक्ष के सेतु पर दृढ़तापूर्वक चले।
६२. मृत्यु के लिए कोई भी क्षण अनवसर नहीं है [-वह किसी भी क्षण आ
सकती है।
६३. सब प्राणियों को आयुष्य प्रिय है । वे सुख का आस्वाद करना चाहते हैं, दुःख से
घबराते हैं । उन्हें वध अप्रिय है, जीवन प्रिय है। वे जीवित रहना चाहते हैं।
+ देखें २११५१ की पाद-टिप्पण। ४ मिलाइए, २२१५०।
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