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26 योगविन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन १३. बुद्धचरित
इसके रचनाकार प्रथम शदी के बौद्धदार्शनिक अश्वघोष हैं। इनकी अब तक उपलब्ध तीन कृतियों में बुद्धचरित विशिष्ट है। यह महाकाव्य है जो संस्कृत के महाभारत और रामायण के बाद गिना जाता है किन्तु दुर्भाग्य यह है कि यह विद्वानों की दृष्टि में पूरा का पूरा अभी तक उपलब्ध नहीं हो सका। प्रथम सर्ग का ३-५ भाग, २ से १३ तथा १४वे सर्ग का १-२ भाग में यह मिलता है। वैसे तो कुछ समय पूर्व प्रो० चौधरी द्वारा जॉन्सन के अंग्रेजी संस्करण के आधार पर २८ सर्गों का एक हिन्दी संस्करण मूल के साथ प्रकाशित किया गया है। बद्धचरित में बुद्ध के जन्म से लेकर निर्वाण प्राप्ति तक का साङ्गोपांग वर्णन किया गया है, जो माधना-बाध के लिए उपयोगी है। जैन वाङमय
आध्यात्मिक दृष्टि से प्राचीन जैन आगमों की भारतीय वाङमय में महत्त्वपूर्ण देन रही है। प्रायः सभी आगमों में साधक की जीवन चर्या एवं योग साधना विषयक दिशानिर्देश और नियमोपनियमों का विस्तार से वर्णन हआ है। सभी विद्याओं के बीज जो कुछ अन्यत्र नहीं मिलते, मल रूप से जैन आगमों में एकत्र प्राप्त होते हैं क्योंकि जेन परम्परा निवति प्रधान और अधिक प्राचीन है। इसमें मनि के आचार-विचार एवं व्यवहार तथा आत्मविकास का अंगोपांग सहित विश्लेषण किया गया है। मनि को ही दसरे शब्दों में योगी कहा जाता है। अतः योग सम्बन्धी चर्चा और योग के विकास का वर्णन प्रचुर रूप से जैन आगमों में उपलब्ध होता है।
जब जैन वाङमय पर विचार किया जाता है तब हम पाते हैं कि उसकी आचार भत भित्ति तो आध्यात्मिक ही है। क्या योग अथवा ध्यान याकि समाधि सभी विषयों पर जितना गहन चिन्तन जैन वाङमय में किया गया है उतना अन्यत्र मिलना दुर्लभ है।
जैन धर्म-दर्शन यद्यपि निवृत्ति प्रधान है फिर भी वह सत्वों की प्रवत्ति पर भी उतना ही बल देता है जितना कि निवत्ति पर किन्तु सत्व तो अधिकांश प्रवृत्ति की ओर उन्मुख होते हैं, निवृति की ओर उतना नहीं कारण कि जैन दर्शन की निवृत्ति मार्ग भी अपनाना अधिक सरल
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