________________
भारतीय वाङमय में योगसाधना और योगबिन्दु
23
हमें अभिधर्मकोश में ज्यों के त्यों मिल जाते हैं जबकि कतिपय विषयों का प्रतिपादन पालि महावग्ग से मिलता जुलता है । विषय प्रतिपादन यद्यपि संक्षिप्त है, फिर भी धर्मों की संख्या एवं गणना में पूर्ण साम्य है । इसमें १५ अध्याय हैं, जिनमें दानशील, लोक, धातु एवं गति, स्थित्याहभव, कर्म, उसके भेद, स्कन्ध, धातु, आयतन, संस्कार, प्रतीत्यसमुत्पाद, अनुशय, अनास्रव, पुद्गल, ज्ञान, ध्यान, संकीर्ण समाधियां, बोधिपाक्षिकधर्म चार आर्यसत्य और मिश्रकसंग्रह मुख्य हैं । इसमें शीर्षक के अनुरूप ही विषय का विस्तार से विवेचन किया गया है। ध्यान एवं चित्त की वृत्तियों का अध्ययन १० से १३ तक के अध्यायों में किया गया है । ७. अभिधर्मसमुच्चय
अभिधर्मसमुच्चय की भी अपनी नवीन शैली हैं । प्रायः जो अर्थविनिश्यसूत्र से मिलती-जुलती है । यह संस्कृत भाषा में निबद्ध हैं । सम्पादन भी प्रह्लाद प्रधान ने किया हैं और यह रचना १९५० में शान्ति निकेतन से प्रकाशित की गई है । इस ग्रन्थ की खोज करने वाले भी बौद्ध विद्वान् राहुल सांकृत्यायन हैं। इसके चीनी और तिब्बती ऐसे दो अनुवाद भी मिलते हैं। चीनी भाषा का अनुवाद ७वीं शदी में ह्व ेनसांग ने किया था तथा तिब्बती भाषा में अनुवाद ज्ञानमित्र ने । कुछ विद्वान् इसका पांचवा परिच्छेद प्रक्षिप्त मानते हैं ।
अभिधर्मसमुच्चय में कुल पाँच परिच्छेद हैं । प्रथम के तीन भाग हैं इसे धर्म परिच्छेद कहा गया है । स्कन्धधातु तथा उनके विकल्पों, विविध नयों सम्प्रयोगों पर प्रकाश डाला गया हैं । इसके बाद समन्वयांगम परिच्छेद है, जो विनिश्चय समुच्चय कहा गया है । दूसरे परिच्छेद में आर्यसत्यों का वर्णन है । तीसरे धर्माविनिश्य परिच्छेद में द्वादशांग प्रवचन है । इसमें प्रतीत्यसमुत्पाद की परिचर्चा की गई है । चतुर्थ में प्राप्ति विनिश्चय पुद्गल और अभिसमय व्यवस्थान का प्रतिपादन मिलता है । अन्तिम पांचवा सांक्थय विनिश्चय परिच्छेद है जिसमें तर्कशास्त्र के वाद, जल्पवितण्डा आदि पर संक्षेप में प्रकाश डाला गया है ।
८. ललितविस्तर
ललितविस्तर नववैपुल्य सूत्रों में से एक है । यह महायान बौद्धों
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org