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का ध्यान, पञ्च परमेष्ठीमंत्र का ध्यान, (3) रूपस्थ ध्यान, (4) रूपातीत ध्यान, धर्मध्यान के चार आलम्बन-वाचना, पृच्छना, परिवर्तना और अनुप्रेक्षा, धर्मध्यान के चार लक्षण-आज्ञारुचि, निसर्गरुचि, सूत्ररुचि, अवगाढ़रुचि, धर्मध्यान की चार अनुप्रेक्षाएं-धर्मध्यान की लेश्याएं, (4) शुक्लध्यान, शुक्लध्यान के भेद-(1) पृथकत्व वितर्क सविचारी, (2) एकत्वश्रुतअविचारी, (3) सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति, (4) उत्सन्नक्रियाप्रतिपाति, शुक्लध्यान के लक्षण-अपीड़ित, असम्मोह, विवेक, व्युत्सर्ग, शुक्लध्यान के आलम्बन-क्षमो, मार्दव, आर्जव, सन्तोष, शुक्लध्यान की अनुप्रेक्षाएंअनन्तवर्तितानुप्रेक्षा, विपरिणामानुप्रेक्षा, अशुभानु
प्रेक्षा, अपायनुप्रेक्षा, शुक्लध्यान में लेश्याएं (ख) योगबिन्दुगत योग के भेद (229-233)
(1) तात्विकयोग, (2) अतात्विकयोग, (3) सानुबन्धयोग, (4) निरनुबन्धयोग, (5) सास्रवयोग,
(6) अनास्त्रवयोग (ग) गुण, स्थान और योग (233--245)
गुणस्थान का स्वरूप, जीवस्थान, गुणस्थानों की संख्या-(1) मिथ्यादृष्टि, (2) सासादन, (3) मिश्रदृष्टि, (4) अविरत्तसम्यक्दृष्टि, (5) देशविरत सम्यकदृष्टि, (6) प्रमत्तसंथत, (7) अप्रमतसंयत, (8) निवृत्तिबादर, (9) अनिवृत्तिबादर, (10) सूक्ष्म साम्यराय, (11) उपशान्तमोहनीय, (12) क्षीणमोहनीय, (13) सयोगकेवली और (14) अयोगकेवली, योग और गुणस्थानों का
परिच्छेद-पंचम : योगबिन्दु एवं तत्व विश्लेषण (246-274)
(क) जैन दर्शन में आत्मा (247-253)
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