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परिच्छेद तृतीय : योगविन्दु की विषय वस्तु (103–178) (क) योग साधना का विकास ( 103 - 126 )
(1) वैदिक परम्परा में योगसाधना का विकास : भक्ति, उपासना, पातञ्जलयोगदर्शन में (1) क्षिप्त, (2) मूढ़, ( 3 ) विक्षिप्त, ( 4 ) एकाग्र, ( 5 ) विरुद्ध, योगवासिष्ठ के अनुसार : ( 1 ) अविकासावस्था, बीजजाग्रत, जाग्रत, महाजाग्रत, जाग्रत स्वप्न, स्वप्न स्वप्नजाग्रत, सुषुप्ति, (2) विकासावस्था : योगस्थितज्ञान की सात भूमिकाएं - शुभेच्छा, विचारणा, तनुमानसा, सत्वापत्ति, असंसक्ति, पदार्थभावना, तुरंगा, ( 2 ) बौद्धयोग साधना का विकास : सप्तचित स्थितियां( 1 ) सक्लेशचित, (2) स्रोत - आपन्न चित्त, ( 3 ) सकृदागामोचित (4) अनागामीचित्त, (5) अर्हचित्त ( 6 ) प्रत्येक बुद्धचित्त, ( 7 ) सम्यक् सम्बुद्धचित्त, दशभूमिर्या - (1) प्रमुदिता, (2) विमला, ( 3 ) प्रभाकरी, (4) अर्चिष्मती, ( 5 ) सुदुर्जया, (6) अभिमुखी, (7) दूरंगमा, ( 8 ) अचला ( 9 ) साधुमती, ( 10 ) धर्ममेघा, (3) जैन योगसाधना का विकास - सम्यग्दर्शन, ( 1 ) शम, ( 2 ) संवेग, (3) निर्वेद, (4) अनुकम्पा, ( 5 ) आस्तिवय, अष्टदृष्टियां - मित्रा दृष्टि, तारादृष्टि, बलादृष्टि, दीप्रादृष्टि, स्थिरादृष्टि, कान्तादृष्टि, प्रभादृष्टि, परादृष्टि, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, योगसाधना की पांचभूमियां- अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता, वृत्तिसंक्षय
(ख) योग का अधिकारी ( 126 - 136 )
योगी के भेद - (1) कुल योगी, (2) गोत्र योगी, ( 3 ) प्रवृत्तचक्र योगी, आत्मगुण-शुश्रूषा, श्रवण, ग्रहण, धारण, विज्ञान, ईहा, अपोह, तत्त्वाभिनिवेश, (4) निष्पन्नयोगी, योगाधिकारी योगाधिकारी के भेद(1) अचरमावर्ती (2) चरमावर्ती
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