________________
277
उपसंहार
योगबिन्दु के अनुसार योग के अधिकारी एवं अनधिकारी की व्याख्या करते हुए योगबिन्दु में प्रतिपादित योग की पांच भूमियों का विवेचन प्रस्तुत है। इसी क्रम में योग साधना के विकास का वर्णन किया गया है। इसमें जहां तक हो सका है पाद-टिप्पणियों में मूल ग्रन्थों को उद्धृत किया है।
___ इससे आगे योग के प्राणतत्व ध्यान का विश्लेषण करते हुए विभिन्न ग्रन्थों के आधार पर पर्याप्त प्रमाण प्रस्तुत किये गए हैं। गुणस्थानों के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए उनके साथ योग के सम्बन्ध पर विस्तत प्रकाश डाला गया है । इसके साथ ही छठे गुणस्थान तक के साधना ऋम को बतलाकर योगबिन्दुगत योग के भेदों का प्रतिपादन किया गया
बाद में आत्मा के स्वरूप पर विचार करते हुए आत्मा का कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व, उसकी तत्त्वज्ञता तथा सर्वज्ञता का यथासाध्य प्रतिपादन किया गया है । आत्मा एवं कर्म का सम्बन्ध, कर्म एवं लेश्या, निर्वाण के साधन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र पर भी प्रकाश डाला गया है। बाद में कर्मबन्ध का विवेचन कर निर्वाण प्राप्ति का सम्यक् निरूपण किया गया है।
__ अन्त में यही कहना चाहूँगा कि योग एक अति प्राचीन गहन विद्या है जिसके अध्ययन की कोई इयत्ता नहीं है । यद्यपि यहां पर मैंने योग के प्रमुख विषयों को चुनकर उनकी व्याख्या करने का प्रयास किया है फिर भी मैं अनुभव करता हूं कि इन विषयों पर और भी उपयोगी सामग्री प्राचीन ग्रन्थों में भरी हुई है जिसका और भी अध्ययन होना अपेक्षित है । परन्तु मैंने साधु जीवन की कठिनाइयों और शोध प्रबन्ध के कलेवर को दृष्टि में रखकर अपने अध्ययन को सीमित रखा है। फिर भी योग परक उपयुक्त तत्त्वों का अध्ययन करने से वस्तुतः म झझे नवीन बोध प्राप्त हुआ है। अतः मुझे विश्वास है कि योग के अध्येताओं के लिए यह शोध प्रबन्ध बड़ा ही लाभकारी सिद्ध होगा, ओम अस्तु ।
०
-
०
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org