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उपसंहार
विशिष्ट है । आचार्य हरिभद्र ने माध्यस्थ वृत्ति का अवलम्बन एवं संकीर्ण पक्षपात से दूर हट कर योग- वेत्ताओं और योग - जिज्ञासुओं के लिए सभी योग शास्त्रों से अविरुद्ध समस्त योग परम्पराओं के सिद्धान्तों के साथ समन्वित उत्तम योग मार्ग का प्रतिस्थापन किया है, जैसा कि ग्रन्थ के प्रारम्भ में स्पष्ट रूप से परिलक्षित भी होता है
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सर्वेणां योगशास्त्राणामविरोधेन तत्त्वतः ।
सन्नीत्या स्थापकं चैव मध्यस्थास्तद्विदः प्रति || ( योगबिन्दु श्लोक २ )
आचार्य हरिभद्रसूरि योग को मोक्ष का मुख्य साधन मानते हैं और उनके मत में योग की परम्पराओं में उक्ति भिन्नता होने पर भी मूलतः सैद्धान्तिक कोई अन्तर नहीं है
मोक्षहेतुर्यतो योगो भिद्यते न ततः क्वचित् ।
साध्याभेदात् तथा भावे तूक्तिभेदो न कारणम् || ( योगबिन्दु श्लोक ३)
इसके साथ ही वे उद्घोषित करते हैं कि योग का अभ्यास ही विद्वत्ता का फल है जो विद्वान् योगाभ्यास नहीं करता वह स्त्री-पुत्र आदि संसार के समान ही शास्त्र संसार में विचरण करता है
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पुत्रदारादिसंसार: पुंसा संमूढचेतसाम् ।
विदुषां शास्त्रसंसारः सयोगरहितात्मनाम् । (वही, श्लोक ५.६ )
योगबिन्दु इस प्रकार अन्य अनेक विशेषताओं से परिपूर्ण है । प्रारम्भ में योग का अर्थ एवं उसकी व्याख्या करते हुए, भारतीय संस्कृति की आध्यात्मिक त्रिवेणी वैदिक, बौद्ध एवं जैन याग के ग्रन्थों का परिचय दिया गया है । तदनन्तर जैनयोग साधना में योग के माहात्म्य पर प्रकाश डाला गया है और साथ ही योगबिन्दु के सन्दर्भ में योग का समीक्षण किया है ।
- इसके बाद योगबिन्दु के रचयिता जैन जगत् के महान् दार्शनिक परम-अध्यात्म योगी आचार्य हरिभद्रसूरि के प्रामाणिक जीवन दर्शन, समय निर्धारण तथा उनके अनुपम व्यक्तित्व और उनकी अत्युत्तम साहित्यिक देन पर रोशनी डाली गयी है ।
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