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________________ योगबिन्दु एवं तत्त्वविश्लेषण 273 इस प्रकार संसार बन्धन एवं उसके कारणों का सर्वथा अभाव तथा आत्मविकास की पूर्णता ही मोक्ष है अर्थात् संवर निर्जरा द्वारा कर्मों का सम्पूर्ण उच्छेद होना मोक्ष कहलाता है।' संवर द्वारा जहां आत्मा में नये कर्मों का प्रवेश सर्वथा रुक जाता है वहां निर्जरा से संचित कर्मों का पूर्णतः क्षय हो जाता है और तभी आत्मा अनन्त सुख एवं आनन्द का अनुभव करता है। संसार बन्धन का कारण मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग-मन, वचन, काय की प्रवृत्ति है और इन्हीं कारणों से जीव अपनी विवेक शक्ति की खोकर भ्रान्ति की अवस्था में संसार की सभी वस्तुओं को अपनी समझने लगता है, जो संसार भ्रमण का हेतु है। मोहनीय कर्म के क्षय से तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म के क्षय से जीव को केवलज्ञान प्राप्त होता है। केवलज्ञान की यह अवस्था ही आत्मा की अरहन्त अवस्था है। यहां ज्ञानावरण, दशनावरण, और अन्तराय इन चार घातिया कर्मों का क्षय हो जाता है। फिर भी इस अवस्था में मन, वचन और काय के योग में सूक्ष्मकाययोग का व्यापार चलता रहता है। इसके बाद आयु, नाम, गोत्र और वेदनीय इन चार अघातिया कर्मों का पूर्णतः क्षय करना होता है। जब साधक अन्तिम शुक्लध्यान में सूक्ष्म काययोग अर्थात् अल्प शारीरिक प्रवृत्ति का भी सर्वथा, त्याग कर देता है तब वह अचल, निरापद और शान्त सुख स्थान को प्राप्त कर लेता है। यह उसकी सिद्धावस्था है । सिद्धावस्था को प्राप्त आत्मा ऋजगति से ऊर्ध्वगमन कर लोकाकाश के अग्रभाग में स्थित हो जाती है। जहां रागरहित होकर सदैव १. मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्चकेवलम् । वही, १.१ २. नमत्यात्मानमात्मेव जन्मनिर्वाणमेव च । गुरुरात्मात्मनस्तस्मान्नान्योऽत्ति परमार्थतः ॥ समाधितन्त्र, श्लोक ७५ ३. तदनन्तरमूर्ध्वगच्छंत्यालोकान्तात् । तत्त्वार्थसूत्र १०.५ ४. कर्मबन्धनविध्वंसादूर्ध्वग्रज्जा स्वभावतः ।। क्षणेनेकेन मुक्तात्मा जगच्चूडान मृच्छति ॥ तत्त्वानुशासन, श्लोक २३१ ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002573
Book TitleYogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvratmuni Shastri
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size14 MB
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